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________________ (प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड २३१ • जलगाँव चातुर्मास (संवत् २०३९) जलगांव का संघ उन इने गिने सौभाग्यशाली क्षेत्रों में से एक था जिन्हें युगप्रभावक आचार्य हस्ती के दो चातुर्मास के अन्तराल के बाद ही पुन: वर्षावास का लाभ मिला। सभी के हृदय में संवत् २०३६ में हुए धर्मोद्योत की स्मृतियां सजीव थी। जलगांववासी पूज्यपाद के सान्निध्य का पुन: लाभ पाकर हर्षोत्फुल्ल थे। सभी के मानस में यह चिन्तन था कि परमपूज्य का यह वर्षावास जलगांव ही नहीं, महाराष्ट्र में पूज्यपाद के सामायिक-स्वाध्याय संदेश को व्यापक बनाने का निमित्त बने व यह क्षेत्र शासन-सेवा के चिरस्थायी महत्त्व के कार्यों का केन्द्र बने। चातुर्मास में धर्मध्यान का अनूठा ठाट रहा। आचार्य श्री की पातक प्रक्षालिनी वाणी का भव्य श्रोताओं द्वारा नित्यप्रति रसास्वादन किया जाता रहा। आचार्य भगवन्त ने अपने प्रेरक उद्बोधनों में जलगांववासियों को समाज और धर्म की अभ्युन्नति, शासनहित व समष्टिहित के लिये पूर्ण सामर्थ्य से आगे बढने का आह्वान किया। सामायिक के पर्याय व स्वाध्याय के सूत्रधार ज्ञान सूर्य हस्ती का मन्तव्य था कि साधु अपने संयम जीवन की मर्यादा में आचार के माध्यम से प्रचार का कार्य करते हैं, उनके विचरण विहार की सीमाएँ हैं। देश-विदेश में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार श्रमण भगवान महावीर के शास्त्रधारी शान्ति सैनिक स्वाध्यायी बंधुओं द्वारा किया जा सकता है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि सम्राट् सम्प्रति ने जैन धर्म को देश विदेश में फैलाने के लिये धर्म प्रचारकों को भेजने का कार्य किया था। आज इस कार्य को आगे बढा कर श्रमण भगवान महावीर का विश्वकल्याणकारी संदेश विश्व के कोने-कोने में प्रसारित किये जाने की आवश्यकता है। हिंसा, कदाचार व हठाग्रह से पीड़ित मानवता के घावों को जिनवाणी की पावन ज्ञान गंगा के मरहम से ही भरा जा सकता है। पूज्यपाद की संयम-यात्रा में देश के विभिन्न कोणों में किये गये दीर्घ विचरण-विहार से स्वाध्याय का राजस्थान में पूर्व से पश्चिम तक, उत्तर से दक्षिण तक व मध्यप्रदेश से महाराष्ट्र, दक्षिण में आन्ध्र से कर्नाटक व तमिलनाडु आदि सभी क्षेत्रों में शंखनाद हुआ। जलगांव वर्षावास में आप द्वारा की गई महती प्रेरणा से महाराष्ट्र के विभिन्न ग्राम-नगरों में स्वाध्यायशालाओं की स्थापना हुई, जिनमें आज तक हजारों व्यक्तियों ने सामायिक, प्रतिक्रमण से आगे का भी अध्ययन कर ज्ञानाराधना में अपने चरण बढाये हैं। यहां ५ से ८ अगस्त तक स्वाध्याय प्रशिक्षण शिविर व एक दिवसीय स्वाध्यायी अधिवेशन का आयोजन हुआ, जिसमें प्रतिक्रमण, व्याख्यान, भजन, अन्तगडसूत्र, कर्म-प्रकृति, समिति-गुप्ति, जैन इतिहास व सप्त कुव्यसन आदि विषयों का विशद अध्ययन-अध्यापन हुआ। प्राच्य पुरातन साहित्य एवं ज्ञाननिधि के संरक्षण बाबत परम पूज्य के पावन उद्बोधन से प्रेरणा पाकर समाजसेवी श्री सुरेश दादा जैन ने 'श्री महावीर जैन स्वाध्याय विद्यापीठ' के अन्तर्गत 'श्री महावीर जैन रत्न ग्रन्थालय' की स्थापना करने की घोषणा की व चातुर्मास में ही चार-पाँच हजार से अधिक पुस्तकों का संग्रह कर इस घोषणा को अमली रूप दिया गया। चातुर्मास काल दया संवर, व्रताराधन व तपाराधन से समृद्ध रहा। प्रत्येक रविवार को सामूहिक दया का सफल आयोजन रहा। सरलमना गुरुभक्त सुश्रावक श्री पूनमचंद जी बडेर, जयपुर ने मौन पूर्वक ६० दिवसीय दया-संवर की साधना कर व्रताराधन का आदर्श उपस्थित किया। जलगांव के मनीषी श्रावक श्री नथमलजी लूंकड़ की पुत्रवधू सौ. उज्ज्वला ने 'तपस्या का एक मात्र उद्देश्य कर्म-निर्जरा है, के अनुरूप १५ उपवास की निराडम्बर तपस्या की। तपस्या के निमित्त कोई भी जुलूस, जीमणवार अथवा आरम्भ-समारम्भ नहीं कर लूंकड़ परिवार ने अन्य
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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