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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड ၃၃၃) आयम्बिल आराधना, मौन-साधना, दया-संवर का आराधन, रात्रि संवर, स्वधर्मीवात्सल्य, दान आदि प्रवृत्तियाँ प्रभावक रहीं (७) अनेक दम्पतियों ने आजीवन ब्रह्मचर्य का स्कंध व कइयों ने ब्रह्मचर्य की मर्यादा स्वीकार की (८) मासक्षपण, अठाई आदि विविध तपों का ठाट रहा (९) धर्मनिष्ठ गुरुभक्त श्रावक श्री शंकर लालजी ललवानी, जलगांव ने ६० दिनों तक अखण्ड मौन साधना की। (१०) कौनबरा, अडयार तथा मद्रास विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों के उपयोग से जैन धर्म व इतिहास विषयक कई नवीन बातें प्रकाश में आयीं, जिससे इतिहास लेखन के कार्य को गति मिली। . बैंगलोर की ओर मद्रास का ऐतिहासिक वर्षावास सम्पन्न कर पूज्य चरितनायक २३ नवम्बर १९८० को शिष्य समुदाय के साथ विहार कर चिन्ताद्रिपेठ पधारे। यहाँ श्री भभूतचन्दजी मुथा ने आजीवन शीलव्रत स्वीकार कर शीलधर्म के आराधक | महापुरुषों का सच्चा स्वागत किया। यहाँ से सन्तमण्डल का तीन संघाटकों में अलग-अलग क्षेत्रों में विहार हुआ। अपने ज्येष्ठ शिष्य सेवाभावी पं. रत्न लघु लक्ष्मीचन्दजी म.सा, आगमज्ञ श्री हीरामुनि जी म.सा. (वर्तमान आचार्यश्री) आदि ठाणा ४ को कालाड़ीपेठ, तमिलभाषी आत्मार्थी सन्त तपस्वीश्री श्री चन्दजी म.सा. आदि ठाणा २ को बडपलनी की ओर विहार कराकर पूज्यपाद दसरे दिन बडपल्ली पधारे। आपने यहाँ सामायिक स्वाध्याय की प्रेरणा देते हए फरमाया –“स्थानक की शोभा सामायिक एवं स्वाध्याय से है।” आपकी प्रभावी-प्रेरणा से कई श्रद्धालुओं ने नियमित सामायिक स्वाध्याय के नियम लिए। यहाँ से आप कोडमवाक्कम् व पोरुर में भी सामायिक-स्वाध्याय का अलख जगाते हुए पुनमली पधारे। सन्तों की अस्वस्थता के कारण आप यहां १० दिन विराजे । इस अवधि में आपके दर्शनार्थ श्रद्धालुओं का आवागमन बराबर बना रहा। पुनमली से पूज्यपाद आवड़ी, तिन्नानूर, त्रिवल्लूर, कडमतूर, पेरमवाकम आदि क्षेत्रों में धर्मोद्योत व नियमित सामायिक-स्वाध्याय की प्रेरणा करते हुए तक्कोलम पधारे, जहाँ श्री मोहन लालजी कोठारी ने एक वर्ष तक शीलवत पालन का संकल्प लिया। २१ दिसम्बर को आपका पदार्पण आरकोनम हुआ। यहाँ बैंगलोर के दृढधर्मी श्रावक श्री चम्पालालजी डूंगरवाल, श्री सांगरमलजी बोहरा, श्री सुकनराजजी पगारिया, श्री भंवरलालजी गोटावत, श्री प्रेमचन्दजी भण्डारी, स्वाध्याय प्रेमी श्री प्रकाशजी मास्टर आदि श्रावकों ने उपस्थित होकर बैंगलोर पधारने के साथ ही दीक्षा की भावभीनी विनति प्रस्तुत की। आपकी प्रेरणा से यहां अनेकों व्यक्तियों ने सामायिक-स्वाध्याय का संकल्प लिया, धर्मप्रेमी श्रावक श्री कन्हैयालालजी गादिया ने महीने में चार दयाव्रत आराधन का नियम लिया। पूज्यप्रवर यहां से नीमली, कावेरीवाकम, बालाजापेठ, आरकाट रत्नागिरी आदि क्षेत्रों को अपने पादविहार से पावन करते हुए पौष कृष्णा सप्तमी को बेल्लूर पधारे। पं. रत्न श्री छोटे लक्ष्मीचन्दजी म.सा. आदि ठाणा व आत्मार्थी श्री श्री चन्दजी म.सा. आदि ठाणा भी विविध क्षेत्रों में धर्म प्रेरणा करते हुए यहाँ पूज्य गुरुदेव की सेवा में पधार गये। पूज्य गुरुदेव ३१ दिसम्बर १९८० पार्श्वनाथ जयन्ती तक शिष्य समुदाय के साथ वहीं विराजे । पूज्यपाद ने अपने प्रेरक उद्बोधन द्वारा प्रेरणा की कि मोह व अज्ञान तिमिर को नष्ट कर ज्ञान प्रकाश के प्रकट होने से ही आत्म-कल्याण सम्भव है। पूज्यपाद के विराजने से यहां व्रत-प्रत्याख्यान , तप-त्याग का ठाट लगा रहा, श्री भंवरलालजी भटेवड़ा ने आजीवन शीलव्रत अंगीकार किया। वेल्लूर से विरंजीपुरम, केबी कुप्पम्, गुडियातम, परनामवह आदि क्षेत्रों को अपनी पदरज से पावन करते हुए | | पूज्यपाद ने तमिलनाडु से आंध्रप्रदेश के नाइकनेरी में पदार्पण किया। इस पूरे विहार क्रम में मार्ग में भक्त श्रावकों का आगमन बराबर बना रहा। पूज्यपाद चाहे किसी महानगर में विराज रहे हों, चाहे वन-खण्डों अथवा छोटे-छोटे ग्रामों में, हर जगह पुण्यनिधान पूज्य हस्ती के पावन-दर्शन करने हेतु श्रद्धालु भक्तगण आते ही रहते, यह आपके
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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