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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं २२० चातुर्मास काल में एकदा आपने प्रवचनामृत में साधन-सम्पन्न जैन समाज को अपना कर्तव्य बोध कराते हुए फरमाया -"दक्षिण में जैन श्रावकों के सत्तारूढ होने से शताब्दियों तक जैन धर्म का प्रचार-प्रसार होता रहा। जैन साहित्य की अमूल्य निधि दक्षिण में मूडबिद्री के जैन भंडारों में सुरक्षित है। आज यद्यपि जैन समाज सम्पन्न है, तथापि अहिंसा के प्रचार के लिये ठोस कार्य करने की आवश्यकता है। आवश्यकता इस बात की है कि जैन समाज स्थानीय समाज में अहिंसा की उदात्त भावना जागृत करे। शासन सेवा में श्रम, शक्ति व अर्थ का सदुपयोग करने वाले ही सदा यशस्वी बने हैं।" चातुर्मास काल में जिनवाणी के मानद् सम्पादक प्रख्यात जैन विद्वान् डॉ. नरेन्द्र भानावत के संयोजकत्व में | विद्वद् गोष्ठी का आयोजन हुआ। देशभर से आये हुए मनीषी विद्वानों ने महामनीषी आचार्य भगवन्त का आशीर्वाद पाकर युवापीढी की समस्याओं पर चिन्तन-मनन करते हुए उन्हें धर्म, अध्यात्म व रचनात्मक कार्यों से जोड़ने हेतु चिन्तन प्रस्तुत किया। भेदविज्ञान के ज्ञाता, आगमवेत्ता, संयम-जीवन के उषा काल से ही देह भिन्न, मैं भिन्न, ये तन-जन-परिजन मेरे नहीं, मैं तो शुद्ध, बुद्ध मुक्त, शाश्वत अविनाशी हूँ, यह चिन्तन स्वरचित आत्म बोधकारी रचनाओं “मैं हूँ उस नगरी का भूप", मेरे अन्तर भया प्रकाश” के माध्यम से प्रकटं कर चुके थे। समय के साथ आपका यह चिन्तन निरन्तर निखरता गया। धर्म के नवनीत सम यह चिन्तन आपके प्रवचनामृत में समय-समय पर प्रकट होता रहा। जन्म, जरा व मत्यु ये जीवन के अटल सत्य हैं। जरा व मृत्यु के शाश्वत सत्यों को समझने वाला साधक इनमें कष्टानुभव नहीं करता, वरन् इनमें भी हित भाव ढूँढ लेता है। कार्तिक शुक्ला ९ को अपने आत्मोद्बोधक प्रवचन में पूज्यपाद ने बुढापावाचक जरा के बारे में फरमाया - “जरा जगाने को आती, मृत्यु निकट पहचान । जगमाया को छोड़कर, जालम धर प्रभु ध्यान । नश्वर तन में बसत है, ज्ञानस्वरूपी देव। अजर अमर निर्मल दशा, करलो उसकी सेव ।। तन - धन - परिजन क्षणिक हैं, भय चिन्ता के स्थान । निज में निज को देख ले, अविचल आनन्द सिन्धु समान ।।” चातुर्मास काल में अनन्य गुरुभक्त अग्रगण्य समाजसेवी श्री हंसराज चन्दजी भंडारी (सुपुत्र स्वर्गीय श्री मांगीचंद जी भंडारी) के असामयिक निधन से रत्न श्रावक समाज व मद्रास स्थानकवासी समाज में अपूरणीय क्षति हुई। परम पूज्य आचार्य भगवन्त ने परिजनों को धर्म की शरण ग्रहण करने की प्रेरणा करते हुये फरमाया “अल्पवय की मृत्यु और रोग-शोक से बचने का मार्ग नियत एवं शुद्ध आहार तथा आसक्ति का परिहार है।" यह चातुर्मास विविध धार्मिक आयोजनों, जन-जन की सहभागिता एवं व्रत-प्रत्याख्यानों की आराधना से सम्पन्न अनूठा चातुर्मास रहा। इस चातुर्मास की अनेक उपलब्धियाँ रही, यथा (१) शताधिक भाइयों तथा बहिनों द्वारा थोकड़ों और शास्त्रों का अध्ययन किया गया (२) ३०० से भी अधिक बालकों व युवकों द्वारा सामायिक , प्रतिक्रमण, २५ बोल आदि कण्ठस्थ किये गये (३) शताधिक अजैन भाइयों द्वारा | कुव्यसनों तथा अभक्ष्य-भक्षण का त्याग किया गया (४) शताधिक युवकों द्वारा सामायिक और स्वाध्याय के नियम लिए गए (५) सन्त सान्निध्य में धर्म-चर्चा के आयोजन का लाभ मिलता रहा (६) शान्ति सप्ताह साधना सप्ताह
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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