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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं २१४ | के अडोल अविचल साधक इस परीषह विजेता महापुरुष ने तनिक भी शिथिलता को अवकाश नहीं दिया। ग्रामों की दूरियां, उग्र विहार, प्रासुक आहार व निरवद्य जल की उपलब्धता में कठिनाई, श्रावकों द्वारा टिफिन से आहार ग्रहण करने की भावपूर्ण अनुनय विनति, किन्तु उस आत्मसाधक ने प्रतिकूल - अनुकूल किसी भी परीषह में कभी साध्वाचार में टण्टा नहीं लगने दिया। अपने आराध्य गुरु की शिक्षा, श्रमण भगवान द्वारा प्ररूपित निर्मल साध्वाचार एवं रत्नवंश की गौरव गरिमायुक्त समाचारी के प्रति प्रतिबद्ध सन्त महापुरुष गवेषणा करते, पर मार्गवर्ती ग्रामीणजन विशुद्ध साधु मर्यादा, ग्रहणीय गोचरी के नियमों से अनभिज्ञ, दो समय आहार मिलने की संभावना ही क्षीण, कई बार एक बार भी प्रासुक आहार मुश्किल से मिलता तो रत्नाधिक शिष्य परिवार उपवास, एकाशन कर अपनी श्रमण गरिमा अक्षुण्ण रखता एवं महनीय गुरु की सेवा को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना कर निरन्तर आगे बढ़ता रहता । संसारी जन जहां सुविधाओं के प्रति लालायित रहते हैं, वहां सच्चे सन्त तो सुविधा को नहीं वरन् साध्वाचार की सुरक्षा को ही महत्त्व देते हैं । पूज्यपाद का पदार्पण आन्ध्र की धरती पर • २३ फरवरी १९८० को कर्नाटक के सीमावर्ती ग्राम जोलदराशि फरसकर पूज्य चरितनायक आन्ध्रप्रदेश सीमा | के प्रथम ग्राम गडेकल होते हुए गुण्टकल पधारे। यहां आपने मंगलमय उद्बोधन में सामायिक - साधना का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए फरमाया अगर जीवन बनाना है, तो सामायिक तू करता जा । हटाकर विषमता मन की, साम्य रस पान करता जा ।। सामायिक जीवन में राग-द्वेष, काम-क्रोध जन्य आकुलता को नष्ट कर समभाव को संस्थापित करने वाली साधना है। आपकी भव्य प्रेरणा से प्रेरित १५ व्यक्तियों ने सामायिक के नियम अंगीकार किये। दक्षिण के इस | प्रवास में आपके प्रवचन पीयूष के पूर्व प्राय: श्री हीरामुनिजी म.सा. (वर्तमान आचार्य प्रवर व अन्य संत व्याख्यान | फरमाया करते थे । आन्ध्र का यह विचरण विहार अत्यन्त दुष्कर था । प्रायः दीर्घ विहार करने होते, मार्गस्थ ग्रामों में | मांस भक्षण करने वाले लोगों की बहुलता थी, शाकाहारी लोगों में भी अधिकतर जैन साध्वाचार की मर्यादा से अनभिज्ञ थे, जिससे संतों को इस विहार में आहार- पानी की गवेषणा में बहुत अधिक श्रम करना पड़ा व अनेक | परीषहों का सामना करना पड़ा । २९ फरवरी को पूज्य चरितनायक २९ किलोमीटर का उग्र विहार कर गुत्ती पधारे । | आचार्य भगवन्त के तमिल भाषी उग्र तपस्वी शिष्य श्री श्रीचन्दजी म.सा. राजस्थान के भरतपुर से १८०० किलोमीटर | का दीर्घ विहार कर ठाणा ३ से गुत्ती पधारे एवं पूज्य गुरुदेव के पावन दर्शन कर अत्यन्त हर्षित हुए । आचार्यप्रवर जब पामडी, गार्डिले, अनन्तपुर, मरूर, चिन्ने, कोत्तपल्ली गुटूर होते हुए विषम दुर्गम पहाड़ी मार्ग से आगे बढ रहे थे, तो वहाँ कुछ ग्रामीण महिलाएं इस अद्भुत योगी व संत महापुरुषों के प्रति सहज भक्ति से कदलीफल लेकर आई व स्वीकार करने का आग्रह करने लगी तो उन्हें समझाया गया कि जैन सन्त इस प्रकार सामने लाया हुआ प्रासुक आहार भी ग्रहण नहीं करते हैं। इस युग में भी दृढव्रती ऐसे साधकों से प्रेरित होकर उन ग्रामीण बहिनों ने रविवार को व्रत करने का नियम अंगीकार कर अपना अहोभाग्य माना । यहाँ से पूज्यपाद चालकूर होते हुए १३ मार्च को ठाणा १० से आन्ध्रप्रदेश के सीमावर्ती नगर हिन्दुपुर पधारे। कहने को तो इस नगर का नाम हिन्दुपुर था, किन्तु वहां | मांसाहार सेवन करने वाले लोगों की बहुलता होने से करुणानिधान आचार्य भगवन्त को ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो वहाँ अहिंसा सांसें ले रही हों ।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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