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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं १९६ ज्येष्ठ शुक्ला दशमी संवत् २०३५ तदनुसार १६ जून १९७८ को आचार्यश्री के मुखारविन्द से श्री रामनिवासजी जैन के सुपुत्र एवं श्री रमेशचन्द जी के अनुज श्री महावीरप्रसाद जी जैन (सवार्ड माधोपुर) की भागवती दीक्षा चतुर्विध संघ की जनमेदिनी की जय-जयकार के बीच सम्पन्न हुई। 'नन्दीषेण' संज्ञा को प्राप्त नवदीक्षित मुनि की दीक्षा के समय आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. आदि ठाणा ८ से विराजमान थे। इस अवसर पर श्री इन्दरमलजी म.सा, श्री महेश मुनि जी, श्री उदयमुनि जी म.सा. ठाणा ३ , आचार्य श्री नानालाल जी म.सा. की आज्ञानुवर्तिनी महासती श्री वल्लभ कंवर जी म.सा, महासती श्री पेपकंवर जी म.सा. आदि ठाणा १२ तथा पूज्य चरितनायक की आज्ञानुवर्तिनी महासती श्री सायरकंवर जी म.सा. आदि ठाणा ४ का आशीर्वाद एवं सुसान्निध्य प्राप्त हुआ। • सैलाना में समरसता का संचार कर रतलाम पदार्पण ___मन्दसौर से विहार कर चरितनायक दलोदा, कचनारा, ढोढर होकर जावरा पधारे , जहाँ जवाहर पेठ के स्थानक एवं चौपाटी के स्वाध्याय भवन में आपके प्रभावी प्रवचन हुए। चौपाटी के प्रवचन में विनति लेकर उपस्थित रतलाम के तीनों संघों को लक्ष्य कर फरमाया- "हमें निश्चय करना है आचार की प्रधानता हो या प्रचार की? आचार्य श्री धर्मदासजी महाराज ने जिनशासन की सेवा के लिए जीवन दे दिया, फिर भी संघ ने पगलिये नहीं रखे, किन्तु आज आप भूल रहे हैं।" जिनशासन की सुविहित आचार परम्परा के प्रबलपक्षधर आचार्य भगवन्त द्रव्य निक्षेप की बजाय भाव निक्षेप के हिमायती थे। आपने जीवन में कभी भी प्रचार को महत्ता नहीं दी। आपका स्पष्ट मंतव्य था कि साधक का आचारसम्पन्न जीवन स्वयं जो छाप छोड़ने में सक्षम है वह छाप प्रबल प्रचार नहीं छोड़ सकता। स्वयं के जीवन में दोष लगाकर धर्मप्रचार का प्रयास तो वैसा ही है “हाथ भी जले व होले भी दुले"। रात्रि में षड्द्रव्य, नवतत्त्व आदि | विषयों पर हुए प्रश्नोत्तरों से जन समुदाय लाभान्वित हुआ। प्रतिक्रमण के पश्चात् रात्रि में प्राय: जब भी जहाँ भी श्रावकों द्वारा जिज्ञासाएँ रखी जाती थी, तो उनका समाधान आचार्यप्रवर बहुत ही रस लेकर किया करते थे। श्रावकों के न पूछने पर आप ही सन्तों या श्रावकों से प्रश्न पूछकर उनका रोचक शैली में ज्ञानवर्धन किया करते थे। मानव मुनि जी ने यहाँ आचार्यप्रवर की सेवा में उपस्थित होकर अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा शान्त की। यहाँ से पीपलोदा होकर आप सैलाना पधारे। सैलाना के स्थानीय संघ में परस्पर समन्वय में कुछ कमी थी। पूज्यपाद के 'कषाय-नियन्त्रण' विषयक उपदेश से संघ में मधुर ऐक्य की लहर दौड़ गई। सैलाना से २५ जून को विहार कर आचार्य श्री धामनोद होते हुए आषाढ कृष्णा षष्ठी संवत् २०३५ को रतलाम पधारे। वहाँ धर्मदास मित्रमंडल में आपने मांगलिक और व्याख्यान फरमाकर जन-जन की प्यास बुझाई। रतलाम का जैन ट्रस्ट बोर्ड तीन सम्प्रदायों (आचार्य श्रीनानालाल जी, पूज्य श्री धर्मदास जी एवं जैन दिवाकर श्री चौथमल जी म.सा.) की संयुक्त-संस्था है, | जिसके तत्त्वावधान में आचार्यप्रवर के रतलाम आगमन पर हुई संयुक्त-व्यवस्था एवं दया आदि कार्यक्रमों का आगन्तुकों ने लाभ उठाया। २०० से अधिक दयाव्रत हुए। रतलाम में तीनों सम्प्रदायों के पृथक्-पृथक् स्थानक व संघ-व्यवस्था है। परस्पर अपेक्षित समन्वय नहीं है, पर समता साधक चरितनायक का जीवनादर्श व पुण्यातिशय ही ऐसा था कि आप जहाँ भी पधारते, अनेकों पक्ष के लोग सारे भेद-विभेद भूलकर एक हो जाते एवं आपके सान्निध्य का लाभ लेते। रात्रि में किसी श्रावक के द्वारा प्रश्न किया गया कि जैन धर्म में मन्त्र-साधना क्यों प्रचलित हुई? इतिहासज्ञ
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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