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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड १९५ एक सहज साधारण बात थी। छोटे-छोटे ग्रामों में बड़े बड़े शहरों के धर्मनिष्ठ श्रावक-श्राविकाएँ पहुँच कर जब सामायिक, संवर, उपवास, पौषध आदि करते थे तो वहाँ के लोग इन तप:पूत महासाधक के ज्ञान-दर्शन चारित्र के साथ ही इनके पुण्यातिशय एवं भक्तों के अपने आराध्य गुरुदेव के प्रति अनन्य श्रद्धा भक्ति से सहज ही प्रभावित हो | जाते। इस विचरण विहार में अनेक व्यक्ति सामायिक स्वाध्याय से जुड़े तो कई व्यक्तियों ने महाव्रतधारी इस महापुरुष से बारहव्रत अंगीकार कर अपना जीवन मर्यादा में स्थिर किया। पूज्यपाद के ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ तथा गणधर गौतम के समान अहर्निश गुरुचरणों में समर्पित सुशिष्य श्री छोटे लक्ष्मीचन्द जी म.सा. ने जब से दीक्षा अंगीकार की, उनके सांसारिक परिजनों की ही नहीं समस्त महागढ वासियों की उत्कट आकांक्षा उनका चातुर्मास अपने यहाँ कराने की थी। गुरु के चरणों में ही जिन्होंने स्वर्ग समझा था, गुरु-सेवा ही जिनके जीवन का लक्ष्य व साधना का केन्द्र बिन्दु था, वे महापुरुष गुरुचरणों से पृथक् चातुर्मास करने के अनिच्छुक थे। पर पूज्यपाद के मालव भूमि में प्रवेश करते ही महागढवासियों की दीर्घकाल से अन्तहृदय में संचित भावना पुन: हिलोरें लेने लगी व वहाँ के श्रीसंघ ने अपनी भावना सम्पूरित विनति आपके चरणसरोजों में प्रस्तुत की तो आपने महागढवासियों की भावना समझते हुए श्री छोटे लक्ष्मीचन्द जी म.सा. का वर्षावास महागढ के लिये स्वीकृत किया। • मन्दसौर में दीक्षा प्रसंग सवाईमाधोपुर निवासी मुमुक्षु श्री महावीर प्रसादजी जैन लम्बे समय से पूज्य गुरुदेव की सेवा में ज्ञानाराधन कर रहे थे। उनकी दीक्षा लेने की उत्कट भावना थी, उनके वैराग्यसिक्त हृदय में यही कामना थी कि मैं शीघ्रातिशीघ्र पूज्य गुरु चरणों में सदा-सदा के लिये समर्पित हो आत्म-कल्याण के मार्ग पर आगे बढूँ। धर्मनिष्ठ संयमानुरागी भक्त सुश्रावक श्री प्यारचंदजी रांका, सैलाना ने मुमुक्षु महावीरप्रसादजी के परिजनों से आज्ञा प्राप्त कर दीक्षा नियत करने में निर्णायक भूमिका का निर्वाह कर जिनशासन सेवा का उत्कृष्ट लाभ प्राप्त किया। विहारक्रम में पूज्यपाद नारायणगढ पधारे, जहां आपने धर्म का सही स्वरूप समझाया व सप्त कुव्यसन त्याग की प्रभावी प्रेरणा की। पीपल्यामंडी में अपने प्रेरक उद्बोधन में धर्मस्थान व प्रवचन सभा में आते समय श्रावक के लिये ध्यान रखने योग्य पांच अभिगमों की उपादेयता श्रोताओं को समझाते हुए फरमाया कि श्रावक को धर्मस्थान व प्रवचन सभा में प्रवेश के पूर्व सचित्त वस्तुओं का बाहर ही त्याग कर देना चाहिये, अचित्त वस्तुओं का भी विवेक रखना चाहिए यानी जूते, चप्पल, मुकुट आदि को भी अन्दर नहीं लाना चाहिए, मुख पर मुखवस्त्रिका या उत्तरासन धारण कर ही प्रवेश करना चाहिये। इस विवेक के साथ ही जैसे ही पूज्य संत-सतीवृन्द दृष्टिगत हो, हाथ जोड़कर दोनों हाथ ललाट पर लगाकर मन को सांसारिक कार्यों से हटा कर धार्मिक कार्यों में एकाग्रता के साथ गुरुचरणों में वन्दन करना चाहिये। यहाँ पर नयी आबादी में सांसद श्री सुन्दरलाल जी पटवा (मुख्यंमत्री भी रहे) ने युगमनीषी आचार्य भगवन्त के पावन दर्शन व वन्दन का लाभ लिया। बोतलगंज से विहार कर इतिहासमार्तण्ड आचार्य श्री ने आरक्षित की विचरण भूमि, दशार्णभद्र की दीक्षास्थली ऐतिहासिक वैभव सम्पन्न दशपुर (मन्दसौर) में प्रवेश किया। मंगल स्तुतियों तथा स्वागत गीतों को गुंजाती जनमेदिनी आचार्य श्री की अगवानी कर विशाल व्याख्यान सभा के रूप में परिणत हो गयी। मंदसौर में
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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