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________________ [प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड बड़ी दीक्षा २४ फरवरी को आचार्यद्वय के सान्निध्य में सम्पन्न हुई । यहाँ सिंहपोल में आचार्यप्रवर श्री हस्तीमलजी | म.सा. ठाणा १४ , आचार्य श्री नानालालजी म.सा. ठाणा ८, प्रवर्तिनी महासती श्री सुन्दरकंवरजी म.सा. ठाणा २२ एवं महासती नानूकंवरजी म.सा. आदि सतीमण्डल का सौहार्दपूर्ण मिलन सबके हृदय - स्थल में अंकित हो गया। यहाँ पर धर्मोद्योत की अद्भुत लहर रही। नवदीक्षितों के नाम क्रमश: गौतम मुनि, महासती कौशल्यावती एवं महासती सोहनकंवर रखे गए। यहां से आपका विहार पीपाड़ की ओर हुआ। दूरी कम करें पीपाड़ में फाल्गुन कृष्णा १४ को पं. रत्न श्री लालचंदजी | म. अगवानी हेतु सामने पधारे। महासती नन्दकंवरजी ने शंका-समाधान प्राप्त कर प्रमोद का अनुभव किया। ___विहार क्रम में आप पीपाड़ से चिरडाणी, खेजडला, रणसीगांव, हरियाडाणा, बोरुन्दा, गगराना होते हुए इन्दावर पधारे, जहाँ आचार्य श्री नानालालजी म.सा. की आज्ञानुवर्तिनी सती बादामकंवरजी आदि ठाणा ४ सेवा में पधारी एवं तत्त्व-चर्चा कर आपसे सम्यक् समाधान प्राप्त कर प्रमुदित हुई। यहाँ से विहार कर आप मेड़ता पधारे तब धर्मशाला के पास ही अगवानी में प्रवर्तक श्री कुन्दनमुनि जी आदि सन्त उपस्थित थे। फाल्गुनी शुक्ला एकदशी को मेड़ता में इन्दौर संघ का प्रतिनिधिमण्डल श्री फकीरचन्दजी मेहता के नेतृत्व में आगामी चातुर्मास की विनति लेकर उपस्थित हुआ। फाल्गुनी पूर्णिमा पर मेड़ता संघ धर्माराधन से कृतार्थ हुआ। जयपुर के श्री श्रीचन्दजी गोलेछा ने गुरुदेव से तत्त्वचर्चा की । सवाईमाधोपुर क्षेत्र की विनति हुई। सवाईमाधोपुर क्षेत्र के जागरण पर आपकी फूलचन्दजी आदि श्रावकों से वार्ता हुई। चैत्रकृष्णा द्वितीया को जयपुर का श्रावक संघ श्राविकावृन्द के साथ चातुर्मास हेतु आग्रहभरी विनति लेकर उपस्थित हुआ। चोरडियाजी, मन्त्री सरदारमलजी चोपड़ा और इन्दरचन्दजी हीरावत ने अत्यन्त आग्रह | किया। आचार्यप्रवर ने इस दिन प्रवचन में फरमाया -“धर्मतीर्थ में सन्तों के साथ श्रावकों के सहयोग की भी व्यवस्था है। श्रावकों के सहयोग से ही धर्म का प्रचार-प्रसार व्यापक रूप ग्रहण करता है। भरत, बिम्बिसार, चेड़ा, उदायन, सम्प्रति, कुमारपाल आदि राजा त्यागी जैन सन्तों से प्रभावित थे। उन्होंने धर्म की बड़ी प्रभावना की। उस समय राजतन्त्र पर धर्म का अंकुश था। धर्म को आज भी श्रावक व्यापकता दे सकते हैं। " जयपुर की विनति को बल देते हुए समर्पित श्रद्धालु श्रावक श्री इन्दरचन्दजी हीरावत ने कहा कि चौमासा होने पर वे चार माह अपना व्यावसायिक कार्य छोड़ देंगे। आचार्य श्री का मानस मध्यप्रदेश की ओर विहार का हो चुका था। अत: चोरड़िया जी एवं चोपड़ा जी ने कहा – “मध्यप्रदेश की ओर आगे न बढ़ना हो तो जयपुर को कृतार्थ करें।” आचार्यप्रवर के सान्निध्य में विनतियों का क्रम चलता रहता था। चातुर्मास हेतु विनतियाँ प्राय: फाल्गुनी पूर्णिमा के आस-पास हुआ करती थी। इसके पूर्व भी लगातार भावनाएँ अभिव्यक्त करने के अवसर का श्रीसंघ लाभ उठाया करते थे। किन्तु आचार्य श्री स्वविवेक से निर्णय लेते थे। चातुर्मास खोलने के पूर्व अनेक बातों को ध्यान में रखने के साथ धर्माराधन की उत्कृष्ट भावना एवं सम्भावना को वे अधिक महत्त्व देते थे। एक ग्राम से दूसरे ग्राम पदार्पण करते समय ग्रामवासियों की धर्मभावना को आगे बढ़ाना एवं स्वयं की संयम-यात्रा को निर्मल रखना आपके जीवन | का उच्च लक्ष्य था। विनति की प्रबलता से कभी लघु मार्ग को छोड़कर दीर्घ एवं कष्टपूर्ण मार्ग पर चरण बढ़ाते हुए भी आपको प्रमोद का ही अनुभव होता था। जिनशासन के सेवक एवं जन-जन में धर्मनिष्ठा और सदाचारी जीवन के प्रेरक आचार्यश्री को कैसा कष्ट? आपने जयपुर संघ को स्वीकृति न देकर धर्म-प्रचार की भावना से इन्दौर का पथ लिया। डांगावास जाते समय मार्ग में वर्धमानसागरजी आदि तीन दिगम्बर मुनियों से मिलन हुआ। उनसे कुशलता एवं
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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