________________
प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
१६७ श्री के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए उनके कठोर साधक जीवन का गुणगान कर अपने जीवन को यत्किंचित् आगे बढाने की प्रेरणा ग्रहण की। पण्डितमुनि श्री सोहनलालजी म.सा, पं. श्री चौथमलजी म.सा, पं. मुनि श्री लक्ष्मीचन्दजी म.सा, महासती श्री सुन्दरकंवरजी, महासती श्री मैनासुन्दरी जी आदि ने गुरु-शिष्य की अद्भुत गुणसम्पन्न जोड़ी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से जनसमुदाय को उद्बोधित किया।
_ अन्त में चरितनायक ने अपने गुरुदेव आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. के अनन्य गुणों का गान कर गुरु का अपने जीवन पर उपकार मान कृतज्ञता प्रकट करते हुए उन्हें नमन किया तथा विशाल जनमेदिनी को सम्बोधित करते हुए फरमाया -“सामाजिक और पारिवारिक क्षेत्र में व्यक्ति का अभिनंदन उसे प्रसन्न कर सकता है, किन्तु हमारा साधक जीवन दूसरे ही प्रकार का है। हमने इन सारे झंझटों को छोड़कर केसरिया कसूमल, दाग-दागिने, भूषण-आभूषण, विभूषण आदि सभी भौतिक वस्तुओं का पूर्णतः परित्याग कर दिया है।" ____ “साधना के पथिक को आत्मा का खटका होता है। अतः स्वाध्याय और सामायिक से सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर अपने आपको पढ़ो और अपने आपको सोचो, सभी समस्याओं का समाधान पुरस्कृत हो जाएगा। जिस भूमि पर आप और हम बैठे हैं, वह कई कारणों से महत्त्वपूर्ण है। इसी भूमि पर पट्टा बिछाकर आचार्य श्री शोभाचन्द जी म.सा, आचार्य श्री मन्नालाल जी म.सा, जैन दिवाकर श्री चौथमल जी म.सा. और पं. श्री मोखमचन्द जी म.सा. जैसी बड़ी-बड़ी विभूतियों ने त्याग और तप की रोशनी से जिनवाणी की वर्षा की थी। ५० वर्ष पश्चात् यह मैदान फिर सजीव हो उठा है। (५० वर्षों पूर्व इसी भूमि पर चरितनायक की श्रमण-दीक्षा सम्पन्न हुई थी।) अब समय है सामाजिक और साम्प्रदायिक वैमनस्य को छोड़ स्वाध्याय से ज्ञान-प्राप्ति कर भ्रातृत्व तथा संयम का पथ अपनाएँ। जयन्तियाँ मनाने की सार्थकता तभी होगी जब जीवन में आध्यात्मिकता की पहल होगी। साधु-जीवन की मर्यादा होने से समाज और देश-विदेश में सुसंस्कारों का प्रचार-प्रसार एक ऐसे श्रावक समुदाय से हो जो सुसंस्कृत, सुशिक्षित तथा सुव्रती हो।”
चरितनायक ने स्वाध्याय का महत्त्व प्रकट करते हुए फरमाया -“सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना है तो स्वाध्याय करो। हमारे सामने हजारों समस्याएँ हो, परन्तु उन सबका समाधान मैंने स्वाध्याय और सामायिक में पाया है। समाज में झगड़े क्यों होते हैं ? सम्प्रदाय में झगड़े क्यों होते हैं? इनके पीछे भी मूल कारण यही है कि आज समाज में स्वाध्याय की प्रवृत्ति नहीं है।”
अपने गुरु आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. के सम्बन्ध में विचार प्रकट करते हुए कहा -
“आचार्य श्री मेरे धर्मगुरु , मेरे धर्माचार्य , परम मंगल जीवन जीने वाले श्री शोभाचन्द्र जी महाराज, की || साधना के आज १०० वर्ष पूरे हो गए। सं. १९२७ में १३ वर्ष की वय में उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य ही नहीं, बल्कि | तन, मन और वाणी से संयमित रहने के महाव्रत स्वीकार किये। पूज्य श्री शोभाचन्द्रजी महाराज ने सन्त-जीवन का आदर्श प्रस्तुत किया। वे महान् त्यागी, तपस्वी, शान्त, सरल और मृदु स्वभाव के थे। वे सम्प्रदाय के भेदभाव की | भावना से ऊपर उठे हुए थे। किसी के प्रति तिरस्कार की भावना उनमें नहीं थी। सबके साथ उनके बड़े मधुर सम्बन्ध | थे। उन्होंने हृदय से प्रेम करना सीखा था। हम सत्कार करने वालों से प्रेम कर सकते हैं, पर विरोध करने वालों से प्रेम करना मुश्किल है। विरोधियों से प्रेम करने वाले वे पूजनीय सन्त थे।"
___“आचार्य श्री शोभागुरु ज्ञान और क्रिया दोनों के धनी थे। शार्दूल केसरीवत् आप श्री शान्त एवं सौम्य थे तथा निर्धारित पथ पर चलने में उसकी भांति तेजस्वी भी थे। उनका मन्तव्य था कि अपनी नीति-रीति पर चलने |