SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड १६१) फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को टोंक पधारे । इन क्षेत्रों में कई भाइयों ने रात्रि- भोजन के त्याग किए, १२ व्रत अंगीकार किए || सपत्नीक शीलव्रत ग्रहण किये और व्याख्यान से प्रभावित हो सप्त कुव्यसन का त्याग किया। नैनवाँ में आपने अग्रवाल भाइयों को स्पष्ट किया कि साकार और निराकार भक्ति में निराकार भक्ति श्रेष्ठ है, शास्त्र बिना गुण के आकार को वन्दनीय || नहीं मानता । टोंक में चातुर्मास की विनतियों तथा तप-त्याग के वातावरण में आचार्यश्री के दर्शनों का लाभ पाकर चतुर्विध || संघ हर्षित हुआ । फाल्गुन शुक्ला ग्यारस १० मार्च को महासती श्री नैनाजी के स्वर्गवास के समाचार पाकर चरितनायक ने || कायोत्सर्ग के साथ सतीजी के जीवन का परिचय दिया। • विजयनगर होकर अजमेर यहाँ से चरितनायक डोंडवाड़ी, लाम्बा, टोडारायसिंह (पूज्य श्री हुक्मीचन्द जी म.सा. की जन्मस्थली), केकड़ी, मेवदा होते हुए फूलिया पधारे, जहाँ महासती यशकंवरजी म.सा. ने श्रावक के देशावगासिक पौषध संबंधी जिज्ञासाएँ रखी। यहाँ से आप धनोप, देवलिया, बड़ली, विजयनगर पधारे। गुलाबपुरा में १४ अप्रैल ६८ को हुई स्वाध्यायियों की बैठक इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रही कि उस दिन कई श्रावकों ने स्वाध्यायी बनने का संकल्प किया। रामगढ़, ब्यावर, खरवा, जेठाणा, तबीजी होते हुए आप अजमेर के मदार गेट स्थानक में पधारे, जहाँ अक्षयतृतीया को वर्षीतप के पारणे हुए तथा उमरावमलजी चौधरी आदि ने १२ व्रत अंगीकार किए। वहाँ से किशनगढ़ प्रवास पर आप श्री ने नये पुराने कार्यकर्ताओं को मिलजुल कर चलने का संदेश दिया, जिससे पूर्व मनमुटाव मिटकर कई समस्याएँ हल हुईं। आचार्य श्री के प्रवासकाल में उनके जहाँ जहाँ पधारने की खबर मिलती, आस-पास विचरणशील संत-सती स्वयं आकर आपश्री के दर्शन कर स्वयं को कृतार्थ समझते थे। • पाली चातुर्मास (संवत् २०२५) किशनगढ से विहार कर पूज्यपाद अजमेर, पुष्कर, तिलोरा आदि क्षेत्रों को पावन करते हुये थांवला पधारे। यहाँ समाज में लम्बे समय से पारस्परिक कलह का वातावरण था। समत्व व साधना के पर्याय महामनीषी चरितनायक के पावन अतिशय व समाज ऐक्य की प्रेरणा से वैषम्य समाप्त हुआ और समाज में एकता व मैत्री का संचार हुआ। यहाँ से विहार कर आप मेवड़ा, पादू, मेड़ता, इन्दावर, गगराना, कवासपुरा, कोसाना, पीपाड़ आदि क्षेत्रों को फरसते हुए भगवन्त जोधपुर पधारे । चातुर्मास काल समीप था। आपका आगामी चातुर्मास पाली स्वीकृत हुआ था। अत: जोधपुर में अल्प प्रवास के बाद ही आप लूणी, रोहट चौटीला आदि विहारवर्ती गांवों को फरसते हुए आषाढ शुक्ला दशमी दिनांक ५ जुलाई १९६८ को ठाणा ६ से चातुर्मासार्थ सुराणा मार्केट पाली पधारे। महासती श्री सुन्दरकंवजी म.सा. आदि ठाणा ३ के चातुर्मास का लाभ भी पाली को मिला। पूज्यपाद के विराजने व चतुर्विध संघ के सान्निध्य से पाली निवासियों में प्रबल उत्साह था। आपने धर्म नगरी पाली के श्रोताओं को उद्बोधित करते हुए फरमाया – “जैसे बिना पाल के तालाब में पानी नहीं ठहरता उसी प्रकार व्रत-प्रत्याख्यान के बिना जीवन में सद्गुण नहीं ठहरते।” आपकी प्रेरणा से नगर वासियों में व्रत-प्रत्याख्यान की होड़ लग गई। मासखमण अठाई, आयम्बिल आदि तपस्याओं की झडी लगी थी तो अनेक भाई बहिन संवर-साधना में भाग लेकर अपने जीवन को भावित करने लगे। इस चातुर्मास में प्रति रविवार सामूहिक दयाव्रत में लगभग ५०० भाई बहिन सम्मिलित होते । मासक्षपण के पूर के दिन एक साथ ८०० आयम्बिल हुए पाप भीरू अनेक भाई बहिनों | ने आपसे श्रावक के बारह व्रतों का स्वरूप समझ कर अपने जीवन को मर्यादा में स्थिर किया, तो अनेक दम्पतियों ने
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy