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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड ऐतिहासिक, अभूतपूर्व व सफल मानने से वे कभी सहमत नहीं हुए । आपने समभाव की साधना पर अपने विचार अभिव्यक्त करते हुये फरमाया- “जब भी कोई साधक साधना के महत्त्व को हृदयंगम कर उसके वास्तविक स्वरूप को अपने जीवन में उतारता आत्मानंदी अवस्था का अनुभव होता है। तब उसे एक नया मोड़, १२५ श्रावक के बारह व्रतों में नवमां सामायिक व्रत तथा श्रमण जीवन की हर पल, हर क्षण की सामायिक एक ऐसी साधना है जो तन और मन से साधी जाती है और लक्ष्य को सिद्ध करती है। इस व्रत की आराधना में तन की दृष्टि से इन्द्रियों पर नियन्त्रण स्थापित कर एक स्थान पर एकाग्रता से शारीरिक स्थिरता लाई जाती है तो मन की दृष्टि से विचारों के उद्वेग एवं मन के चांचल्य स्वभाव का निरोध कर उसे आत्मोन्मुखी बनाने का प्रयत्न किया जाता है। मन में क्षण - प्रतिक्षण जो नाना प्रकार के संकल्प - विकल्प उत्पन्न होते रहते हैं, सामायिक का समभाव उन पर नियन्त्रण कर चित्त शुद्धि लाता है । इस संसार में जितने भी दुःख, द्वन्द्व, क्लेश और परेशानियाँ हैं, वे सभी चित्त के विषमभाव की देन हैं। इनसे यदि बचना है, इनको यदि दूर रखना है अपने से, तो उसका एक मात्र उपाय है समभाव की साधना, सामायिक व्रत की आराधना । समभाव ऐसा अमोघ कवच है, जो प्राणिमात्र को हर प्रकार के आघात से सुरक्षित कर सकता है। जो भाग्यवान समभाव के सुरम्य सरोवर में सदा अवगाहन करता रहता है, उसे संसार का कोई ताप पीड़ा नहीं पहुंचा सकता । समभाव वह लोकोत्तर रसायन है, जिसके सेवन से समस्त आन्तरिक व्याधियाँ एवं वैभाविक परिणितियाँ नष्ट हो जाती हैं । आत्मा रूपी निर्मल गगन में जब समभाव का सूर्य अपनी प्रखरता के साथ उदित होता है तो राग, द्वेष, मोह आदि उलूक विलीन हो जाते हैं। आत्मा में तब अपूर्व ज्योति प्रकट हो जाती है और उसके समक्ष आलोक ही आलोक प्रसारित हो उठता है।" यहां सामायिक संघ की विधिवत् स्थापना कर उसके कार्यों को गति दी गई। चातुर्मास काल में श्रावणकृष्णा १३ को किशनगढ में महासती छोटा हरकँवरजी का स्वर्गवास हो गया। | महासती जी के संयममय जीवन की जानकारी देते हुए श्रद्धांजलि दी गई। जोधपुर-चातुर्मास सानन्द सम्पन्न कर चरितनायक मार्गशीर्ष प्रतिपदा को डागा बाजार होते हुए श्री नरसिंहदास | जी लूंकड की फैक्टरी में विराजे, जहाँ आपके व्याख्यान से प्रभावित होकर सरदारमल जी लूंकड़ ने वर्ष भर में बारह व्यक्तियों को हिंसा छुड़ाने एवं दानादि के अनेक नियम स्वीकार किये । पचासों बहनों ने सामायिक में मौनव्रत रखने की प्रतिज्ञा की । चरितनायक यहां से विहार कर महामन्दिर पधारे व ढालिया स्थानक में विराजे । जैन स्कूल में हुए रविवारीय प्रवचन में पूज्य चरितनायक ने फरमाया- “ साधना के अंतरंग एवं बहिरंग साधन हैं। आहारशुद्धि, सत्संग और आवास शुद्धि बहिरंग साधन हैं तथा त्याग, विराग एवं अभ्यास अंतरंग साधन हैं। इनमें त्याग महत्त्वपूर्ण है। त्याग ही सफलता की कुञ्जी है। त्याग से ही धर्म- बीज फलता-फूलता है।" मंगलवार के प्रवचन में फरमाया " संघ की आवश्यकताओं का विचार कर श्रावक-श्राविकाओं को भी धर्म नायक का सहकारी होना चाहिए। साधु की अपेक्षा श्रावक के धर्मप्रसार का क्षेत्र विशाल है।” धार्मिक शिक्षण की आवश्यकता पर जोर देते हुए आपने फरमाया कि अपने बालवर्ग में भी धर्म शिक्षा का प्रसार नहीं हो, यह हास्यजनक स्थिति है।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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