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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं उनका सर्वप्रथम निर्माण हुआ हो ऐसा नहीं, जड़ चेतन का विभिन्न रूप में संयोग ही सृष्टि की विचित्रता का कारण है।
यदि ईश्वर सष्टि का कर्ता नहीं और जीव स्वयं ही अपना कर्मफल भी भोग लेता है तो ईश्वर की विशिष्टता ही क्या रहेगी? इसका समाधान करते हुए चरितनायक ने फरमाया “ईश्वर की विशिष्टता सृष्टि कर्तृत्व आदि की दृष्टि से नहीं, किन्तु उसके गुण विशेषों से है। ईश्वर शुद्ध, बुद्ध, पूर्ण और मुक्त है। जीव को उसके ध्यान, चिन्तन एवं स्मरण से प्रेरणा और बल मिलता है। आत्म शुद्धि में ईश्वर का ध्यान खास निमित्त है। उसको जीव के कर्मभोग में | सहायक मानना अनावश्यक है। गीता में स्वयं श्री कृष्ण कहते हैं-न कर्तृत्वं न कर्माणि, लोकस्य सजति प्रभः। न
कर्मफलसंयोग, स्वभावस्तु प्रवर्तते । प्रभु न संसार का कर्तृत्व और न कर्म का ही सर्जन करते हैं, कर्म फल का संयोग | भी नहीं करते, वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है कि वह प्रवृत्त होता है। सोच लीजिये आपके दो बालक हैं एक अधिक प्रेम पात्र है और दूसरा कम। जो प्रेम पात्र है वह भंग की पत्तियां घोट कर पीता है और जिस पर कम प्रेम है वह ब्राह्मी की पत्तियां घोटकर पीता है। प्रेमपात्र नहीं होने पर भी जो ब्राह्मी का सेवन करता है, उसकी बुद्धि बढ़ेगी या नहीं और जो प्रेमपात्र होकर भी लापरवाही से भंग पीता है उसकी बुद्धि निर्मल और पुष्ट हो सकेगी क्या? जैसे ब्राह्मी से बुद्धि बढ़ना और भंग से ज्ञान घटना इसमें किसी गुरु की कृपा अकृपा कारण नहीं है। वैसे ही भले बुरे कर्म भी जीव के द्वारा ग्रहण किये गये, बिना किसी न्यायाधीश के अपने शुभाशुभ फल देने में समर्थ होते हैं । बाल जीवों को ईश्वर की ओर आकृष्ट करने के लिये हो सकता है कि विद्वानों ने उसे एक राजा की तरह बतलाया हो, पर वास्तव में ज्ञान दृष्टि से सोचने पर मालूम होगा कि ईश्वर तो शुद्ध एवं द्रष्टा है, वह हमारी तरह कर्म या कर्मफल भोग का कर्ता धर्ता नहीं है।
जीव स्वयं चेतनाशील होने से कर्म का कर्ता, भोक्ता और संहर्ता है। जड़ चेतन का अन्तर ही यह है कि जड़ चलाये चलता, डुलाये डुलता, दूसरे के संभाले संभलता है, किन्तु चेतन स्वयं चलता, डुलता एवं अपने बिगाड़ को अनुभव कर अनुकूल निमित्त भी स्वयं मिला पाता है। यह घड़ी बिगड़ जाने पर भी स्वयं घड़ीसाज के पास नहीं जाती, पर अपने शरीर में बिगाड़ हो और मन में संशय हो तो उसको मिटाने आप, हम स्वयं चिकित्सक और गुरु के पास जाते हैं। अतः उसके लिए किसी फलदाता की आवश्यकता नहीं है। रामायण में तुलसीदास भी कहते हैं कि'कर्मप्रधान विश्वकरि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा।' गीता में कृष्ण ने अक्षर ब्रह्म को कूटस्थ कहा है, | जैसे
"द्वाविमा पुरुषी लोके, क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि, कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।" साकार और निराकार के विषय में समाधान करते हुए आप श्री ने फरमाया-"संसार में दो प्रकार की धार्मिक परम्पराएं चिरकाल से चली आ रही हैं, एक प्रतीक प्रतिमा के द्वारा पूज्य देव की पूजा करती है तो दूसरी परम्परा स्मरण एवं जप स्तुति द्वारा गुणों को याद कर पूज्य की पूजा करती है। यदि प्रतीक और प्रतिमा को ही कोई देव मान कर पूजता है तो गलत है।
लोक देव-पूजा के स्थान पर प्रतीक पूजा करते हैं और देव के नाम पर बड़ा आडंबर तथा हिंसा करते हैं। यह गलती है। पूज्य और पूजा का विवेक होना चाहिये। यहां आपके प्रवचन पीयूषामृत से प्रभावित होकर श्री सोहनमल जी एवं ठाकुर फौजमलजी ने आजीवन शीलवत अंगीकार किया।