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________________ (प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड जोधपुर चातुर्मास (संवत् २००२) तीन सम्प्रदायों की संयुक्त विनति पर विक्रम संवत् २००२ के चातुर्मास का सौभाग्य जोधपुर नगर को सम्प्राप्त हुआ। आचार्य श्री दक्षिण का प्रवास कर कई वर्षों पश्चात् जोधपुर पधारे थे, भक्तों में उमंग एवं उल्लास का सागर उमड़ रहा था। व्याख्यान की व्यवस्था आहोर ठाकुर की हवेली के विशाल प्रांगण में थी। धर्मध्यान एवं तप-त्याग का तो कहना ही क्या, बारनी के भण्डारी वजीर चन्दजी ने बारनी वालों की ओर से दया-पौषध की एक नवरंगी अलग से करवाई। दूसरी नवरंगी शहर के मूल निवासी श्रावकों ने करायी। भण्डारी जी ने अपनी वृद्धावस्था में भी धूम्रपान का जीवन भर के लिए त्याग किया। श्री किशोरमलजी लोढा की धर्मपत्नी ने २१ दिवस की तपस्या करके फिर मासखमण तप किया। मोहनराजजी संकलेचा की धर्मपत्नी एवं सोहनराज जी भंसाली दईकड़ा वालों ने मासखमण किया। मिलापचन्दजी फोफलिया की धर्मपत्नी ने ४५ की तपस्या की। पन्द्रह, ग्यारह, आठ आदि की अनेक तपस्याएँ हुई। इन सब अध्यात्मपरक गतिविधियों के साथ-साथ आचार्य श्री का चिन्तन जैन-धर्म को जन-धर्म बनाने, श्रमण-जीवन में विशुद्ध शास्त्रीय स्वरूप की पुनः संस्थापना करने, सम्पूर्ण श्रमण-श्रमणी वर्ग को समान आचार, विचार, व्यवहार और समाज समाचारी के एक सुदृढ़ सूत्र में सुसम्बद्ध करने, पर्वाराधन आदि के सभी विभेदों को समाप्त कर एकसूत्रता लाने, श्रमण-श्रमणी और श्रावक-श्राविका वर्ग को एक सूत्र में आबद्ध कर जैन संघ को सुगठित सुदृढ , अभेद्य एवं अनुशासनबद्ध बनाने तथा उसे पुरातन प्रतिष्ठित पद पर अधिष्ठित करने के व्यावहारिक हल खोजने में लगा। इसे आचार्य श्री ने समय-समय पर अपने प्रवचनों में भी रखा। इस चातुर्मास काल में ही स्त्री-समाज में धार्मिक शिक्षा-विषयक प्रेरक प्रवचनों से प्रेरित होकर वर्द्धमान जैन कन्या पाठशाला की स्थापना की गई। इस पाठशाला की स्थापना एवं संचालन में सज्जनजी बाई सा एवं इन्द्रजी बाई सा का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। संघहित और समाजोत्थान के लिए इस प्रकार अनेक कार्य हुए। सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडल के माध्यम से लेखन, प्रकाशन, प्रचार-प्रसार के कार्य उल्लेखनीय रहे। श्री रतनलालजी संघवी, श्री रत्नकुमारजी 'रत्नेश' आदि के सहयोग से कर्मठ कार्यकर्ता श्री विजयमलजी कुम्भट की देखरेख में साहित्य-निर्माण का कार्य अग्रसर हुआ। इसी चातुर्मास में आचार्यश्री के प्रवचनों से प्रभावित हो पुण्यशालिनी बहनों सायरकंवर जी और मैनाकंवर जी में सांसारिक प्रपञ्चों से विरक्ति का भाव जागृत हुआ। जोधपुर में इस वर्ष आचार्य श्री जयमलजी म. की सम्प्रदाय के स्थविर मुनि श्री चौथमलजी महाराज का भी चातुर्मास था। दोनों सम्प्रदायों के मुनि मण्डल में प्रशंसनीय सौहार्द और | वात्सल्यभाव रहा। चातुर्मास के प्रारम्भ में श्रावण कृष्णा २ सम्वत् २००२ को पीपाड़ में विराजित रत्नवंशीया श्रद्धया महासती श्री | पानकंवरजी म.सा. का समाधिमरण हो गया। महासतीजी आत्मार्थिनी एवं भद्रिक परिणामिनी होने के साथ आगम एवं थोकड़ों की मर्मज्ञ थी। ४५ वर्ष की उम्र में दीक्षित होने के पश्चात् आपने रेत में अंगुलि से रेखाएं खींच कर अक्षर लिखना सीखा एवं जिज्ञासा और लगन की उत्कटता से आगम तथा थोकड़ों का असाधारण ज्ञान अर्जित कर लिया। स्वामीजी श्री चन्दनमलजी महाराज उनके ज्ञानवर्धन में सहायक रहे। सुनते हैं पण्डितरत्न श्री समर्थमल जी
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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