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उज्जैन होते हुए राजपूताना में
(संवत् २०००-२००८)
, प्रावक
आपके प्रवचनों से प्रबुद्ध हो शिरपुर में सुखलाल भाई आदि सात सद् गृहस्थों ने शीलव्रत धारण कर जिनधर्म की प्रभावना की। यहाँ मारवाड़ी भाई चुन्नीलालजी सेवा में प्रमुख थे, अच्छे श्रद्धावान एवं क्रियारुचि वाले श्रावक थे। अत: महती धर्मप्रभावना हुई। शिरपुर से धामनोद, मांडू होते हुए नालछा पधारे।
क्यों सोया भर नींद में रे, अब तो सुरत सम्भाल,
नहीं वसीला होगा तेरे, दिल में सोच विचार ।। ऐसी टेर सुनाकर आचार्य श्री ने नालछा में कई युवकों की आध्यात्मिक प्यास जगा दी और व्यसनों से मुक्त | कराया। युवक मांगीलाल पर इस टेर का विशेष असर हुआ। उसने व्यसनों का त्याग कर सन्तों से सामायिक आदि पाठ सीखना प्रारम्भ किया। भाई मूलचन्दजी छाजेड़ और उनके मित्र का धर्म-साधना में आगे बढ़ाने में बड़ा सहयोग रहा। उन्होंने मुनिमण्डल के विहार में मांगीलाल को साथ कर दिया। नालछा से सभी सन्त धार पधारे । पण्डित मुनि श्री लक्ष्मीचन्द्र जी के ज्वर के कारण आचार्यश्री कई दिन धार में विराजे । यहाँ से बदनावर होते हुए कानवन पधारे। कानवन में सेठ चाँदमल जी अच्छे सेवाभावी श्रावक थे। उन्होंने स्वास्थ्य आदि कारणों से सन्तों के डेढ माह ठहरने तक भावनापूर्वक सेवा का अच्छा लाभ लिया। इस बीच जयपर संघ के केसरीमलजी लाल हाथी वाले आ चातुर्मास की विनति लेकर आए, किन्तु पण्डित मुनि श्री लक्ष्मीचन्दजी का स्वास्थ्य अनुकूल नहीं होने से विनति स्वीकार नहीं की गई। स्वास्थ्य में सुधार होने पर रतलाम पधारे। यहां उज्जैन का श्रावक संघ चातुर्मास हेतु आग्रह भरी विनति लेकर उपस्थित हुआ, जिसे मान्य कर लिया गया। रतलाम से खाचरोद पधारने पर विरक्त अभ्यासार्थी मांगीलाल को देखकर सेठ हीरालालजी नांदेचा ने जिज्ञासा की कि इनको वैराग्य सुदृढ होते हुए भी दीक्षा क्यों नहीं दी जा रही है। उनकी ऐसी भावना थी कि दीक्षा का लाभ उन्हें मिले तो बहुत अच्छा हो । मुनिमण्डल के समक्ष यह बात रखी तो उन्होंने कहा कि अभी वैरागी के पिता की अनुमति प्राप्त नहीं है। सेठजी ने विरक्तभाई का भाव देखकर कहा इनकी आज्ञा मैं प्राप्त कर लँ, तब फिर यहीं दीक्षा होनी चाहिए।" उन्होंने नालछा से विरक्त -भाई के पिता श्री हजारीमलजी कांकरेचा एवं माता धनकंवरजी से जी से आज्ञापत्र प्राप्त कर लिया। तदनन्तर वहाँ वैरागी मांगीलाल की बड़ी उमंग से आषाढ-शुक्ला द्वितीया संवत् २००० को आचार्य श्री के मुखारविन्द से भागवती दीक्षा हुई जो दीक्षोपरान्त 'माणक मुनि' कहलाए।
दीक्षा महोत्सव में मालवभूमि के अनेक नगरों, खाचरोद के आस-पास के ग्रामों तथा अजमेर, जयपुर, उदयपुर एवं मारवाड़ में जोधपुर सहित अनेक ग्राम-नगरों के श्रद्धालु भक्तगण बडी संख्या में उपस्थित हुए।
दीक्षा के दूसरे दिन आचार्य श्री ने यहाँ से पन्द्रह मील का उग्र विहार कर एक घर में रात्रि विश्राम किया। उज्जैन के कतिपय श्रावकों का निवेदन था कि आचार्य श्री उस मकान में नहीं ठहरें। श्रावकों की धारणा थी कि वहां सर्यों का वास है। लेकिन निर्भय एवं दृढमनोबली साधक आचार्य श्री वहीं विराजे । षट्काय प्रतिपालक को किसी से भय भी कैसे हो।