SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड की स्वीकृति से ऐसी प्रसन्नता हुई जैसे उन्हें चिन्तामणि रत्न मिल गया हो । लासलगांव चातुर्मास (संवत् १९९९) • ८९ चातुर्मास मान्य कर आप आस-पास के क्षेत्र में विचरण करते हुए आषाढ के शुक्लपक्ष में चांदवड़ पधारे, जहाँ दिन-भर वर्षा रहने के कारण सन्तों के उपवास हो गया । उपवास के दूसरे दिन लासलगांव नगर में प्रवेश हुआ । चातुर्मास गाँव के बाहर स्थित विद्यालय भवन में हुआ । गुरुदेव के प्रवचनों का सब लोग लाभ ले सकें, एतदर्थ सबने यह निर्णय किया कि जब तक व्याख्यान चालू रहे, व्यापार नहीं करेंगे, दुकान नहीं खोलेंगे। आइत- बाजार में सैंकड़ों गाड़ियाँ आती, पर जैनों के गए बिना बोली नहीं लगती। प्रेम और संगठन का इतर समाज पर भी प्रभाव था। युवकों ने कार्य का बंटवारा कर आगन्तुकों की अच्छी सेवा - भक्ति की । संवत्सरी के दिन चांदवड़ से २०० छात्र पहुँचे, किन्तु प्रवचन में पूर्ण शान्ति रही । तपस्वियों के साथ दिखावे एवं बैंड-बाजे का प्रयोग नहीं हुआ। तपस्या के उपलक्ष्य में आडम्बर एवं अपव्यय की अपेक्षा सामाजिक संस्थाओं को सहयोग प्रदान कर अर्थ को सार्थक किया गया । चातुर्मास की ऐतिहासिक उपलब्धि के रूप में साप्ताहिक मौन चालू हुआ जो वर्षों तक चालू रहा । यहाँ शिक्षा क्षेत्र में महावीर जैन विद्यालय और जैन छात्रावास सम्बंधी श्लाघनीय विकास कार्य 1 • इस चातुर्मास में यह अनुभव किया गया कि जिनेन्द्र प्रभु की आगमवाणी का लाभ सन्त-सतियों के माध्यम | से कुछ ही लोग ले पाते हैं, अत: आगमवाणी, जैनदर्शन, इतिहास और जैन संस्कृति का ज्ञान सम्पूर्ण देश एवं विदेश में प्रसारित करने के लिये कोई मासिक पत्रिका प्रकाशित की जाए तो इससे लोगों की स्वाध्याय प्रवृत्ति को भी बल मिलेगा एवं उन्हें नियमित रूप से पाठ्य सामग्री सुलभ हो सकेगी। जिनेन्द्र वाणी को नियमित एवं दूरस्थ स्थानों पर पहुंचाने का इसे उत्तम साधन मानकर भक्त श्रावकों ने 'जिनवाणी' मासिक पत्रिका के प्रकाशन का निर्णय लिया । श्रमण संस्कृति की प्रतीक जिनवाणी पत्रिका में सन्त-प्रवचन एवं आगम वाणी के साथ जैन संस्कृति, इतिहास एवं धर्म-दर्शन से सम्बद्ध जानकारी की विविध रचनाओं का समावेश करने का लक्ष्य रहा । इसका प्रथम अंक वि.सं. १९९९ पौष शुक्ला पूर्णिमा तदनुसार जनवरी १९४३ में श्रीजैनरल विद्यालय भोपालगढ़ प्रकाशित हुआ । | प्रकाशन कार्य में जोधपुर के युवा कार्यकर्ता श्री विजयमल जी कुम्भट का सराहनीय सहकार रहा। वर्तमान में यह पत्रिका सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडल जयपुर से नियमित रूप से प्रकाशित हो रही है एवं इसके स्वाध्याय, सामायिक, श्रावक धर्म, जैन संस्कृति और राजस्थान, अहिंसा, कर्म सिद्धान्त, अपरिग्रह, तप, साधना, सम्यग्दर्शन, जैनागम-साहित्य | आदि विषयों पर अनेक विशेषाङ्क, प्रशंसित हुए हैं। महासती रूपकंवर जी का स्वर्गारोहण चातुर्मास समाप्त होते-होते भोपालगढ़ से महासती माताजी श्री रूपकंवर जी महाराज की चिन्तनीय हालत के | समाचारों के साथ आचार्यश्री की सेवा में यह संदेश भी आया कि माताजी महाराज आपके दर्शनों की उत्कट भावना रखती हैं। इस प्रकार के समाचार प्राप्त होने के कारण चातुर्मास पूर्ण होने पर आचार्य श्री ने अपने मुनिमंडल के साथ मारवाड़ की ओर विहार कर दिया । किन्तु आचार्य श्री धुलिया भी नहीं पहुँच पाये थे कि सहसा समाचार मिले कि मार्गशीर्ष शुक्ला ग्यारस को माताजी महाराज का समाधिमरण हो गया है। इन समाचारों को सुनते ही सन्तवृन्द | ने चार-चार लोगस्स का कायोत्सर्ग किया। विहार की गति मन्द हो गई । धुलिया में कुछ दिन विराजे । यहाँ से शिरपुर की ओर विहार हुआ ।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy