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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
आचार्यप्रवर ने सतारा हेतु स्वीकृति प्रदान की। इसी बीच माघ शुक्ला १३ संवत् १९९५ को महामन्दिर जोधपुर में लाडकंवरजी (धर्मपत्नी श्री जुगराजजी भण्डारी) की दीक्षा सम्पन्न हुई । लाडकँवर जी म. ने आगे चलकर प्रवर्तिनी पद | को विभूषित किया। • सतारा चातुर्मास (संवत् १९९६)
_ आचार्य श्री खिड़की से विहार कर चिञ्चवड़, केड़गांव स्टेशन, बोरी, वरवंड एवं पारस होते हुए दौंड़ पहुंचे। मार्ग के ग्राम नगरों को फरसते हुए आप ठाणा छह से सतारा के भवानी मंदिर में चातुर्मास हेतु बिराजे । यहां स्थानकवासियों के १५ घर एवं माहेश्वरी समाज के अस्सी घर थे जो सभी सत्संग प्रेमी थे। महाराष्ट्र और कर्नाटक के जैन धर्मावलम्बियों ने इस चातुर्मास में सतारा आकर धर्मलाभ लिया। यहाँ पर चातुर्मास में एकदा आप प्रात:काल स्थण्डिल के लिए पधार रहे थे, तब करुणाशील चरितनायक ने दयाभाव से नागराज की रक्षा कर उसके प्राण बचाए। यह रोमांचकारी घटना आपके द्वारा लिखित संस्मरणों में से यहाँ यथारूप प्रस्तुत है-"प्रात:काल जंगल जाते रोड़ पर लोगों को इकट्ठे देखा। एक के हाथ में लट्ठ था। एक प्रहार किया। दूसरा करने वाला था। हमारी नजर रोड़ के सांप पर पड़ी। मैंने भाई के हाथ की लाठी पकड़ी और नीचे सांप को अपने हाथ पोंछने का कपड़ा डालकर उठा लिया। शरीर रोमाञ्चित था। मुनि लक्ष्मीचन्द साथ थे। मैं ज्योंही उसको लिए चला, सब देखते रह गए। एक भाई पीछे आया और बोला - महाराज ! इसको छोड़ दो। यह चोट खाया हुआ सांप है। इसका विश्वास नहीं। मैंने उसकी बात को सुनी-अनसुनी की और जंगल में एक नाले के पास पहुँच कर सर्प को छोड़ दिया। उसके आगे नहीं बढने पर जरा कपड़े से छुआ, तब उसने भी मुँह फेर कर देखा और चल दिया। हमने ओघे की दण्डी पर और हाथ में भी पकड़ा, पर उसमें कोई कलुषित भाव नहीं देख पाए। प्रभु नाम की बड़ी शक्ति है। जीवन में श्रद्धा और साहस का यह पहला प्रसंग था।" इसमें आचार्यप्रवर की न केवल जीवरक्षा की प्रबल भावना प्रकट हुई, अपितु उनकी निर्भयता एवं प्रभावशालिता का सिंहनाद गूंज उठा। __आचार्य श्री के सान्निध्य में सतारा के अहिंसा प्रेमी विद्वान् श्री आटले जी के प्रयासों से आठ अगस्त को अहिंसा दिवस मनाया गया। इस दिन सभी प्रकार की हिंसा पूर्णरूपेण बन्द रखी गई। कत्लखानों पर दिन भर ताले लगे रहे। प्रेमपूर्वक मुस्लिम भाइयों ने भी हिंसा बन्द रखी। मछली पकड़ने वालों ने भी मछली पकड़ना बन्द रखा। सभी धर्मों के अनुयायियों ने मिलकर अहिंसा की महिमा बताई, जो सतारा के इतिहास में स्मरणीय रहेगा। महाराष्ट्र में फूलमाला का उपयोग विवाह के प्रसंग में सर्वत्र अनिवार्य रूप से होता है, किन्तु अहिंसा के पुजारी श्री आटलेजी ने अपने पुत्र के विवाह में भी इसका उपयोग नहीं किया। वे इस विचार के थे कि शाकाहार में होने वाली हिंसा से बचने का भी कोई न कोई उपाय खोज निकाला जाए।
सतारा के चातुर्मास काल में श्रुतसेवा का चिरस्थायी कार्य भी सम्पन्न हुआ। यहाँ सेठ चन्दनमल जी ने जो धनराशि सुकृत फण्ड के रूप में निकाल रखी थी, उसका उपयोग दशवैकालिक सूत्र संस्कृत अवचूरि तथा हिन्दी भाषानुवाद एवं मराठी भाषानुवाद के प्रकाशन में कर लिया गया। इसका सम्पादन पं. दुखमोचन जी झा द्वारा किया गया था। इसी चातुर्मास में आचार्य श्री ने नन्दिसूत्र के सम्पादन एवं टीकानुवाद का कार्य प्रारम्भ किया।
आचार्य श्री ने आश्विन शुक्ला द्वादशी के दिन अपने द्वितीय शिष्य के रूप में वारणी (मारवाड़) के श्रीजालम | चन्द्र जी (सुपुत्र श्री सम्पतमल जी मूथा) को दीक्षित किया। इनकी दीक्षा यहां बड़े समारोह के साथ सम्पन्न हुई।