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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं चातुर्मासार्थ अहमदनगर के नवीपेठ धर्मस्थानक में पधारे। वि. संवत् १९९५ के आपके इस १८वें चातुर्मास में लगभग ५०० जैन घरों वाले इस व्यावसायिक नगर में जैन-अजैन सभी ने धर्माराधन का लाभ लिया। चरितनायक ने यहां आगम-सम्पादन का कार्य अपने हाथ में लिया। इसे अहमदनगर चातुर्मास की विशेष उपलब्धि ही कहा जाएगा। बम्बई विश्वविद्यालय में अर्धमागधी के प्रशिक्षण हेतु पाठ्य पुस्तक दशवैकालिक सूत्र दुर्लभ है, यह जानकर दशवैकालिक सूत्र सरल संस्कृत टीका एवं हिन्दी अनुवाद सहित तैयार करवाया और अमोलकचन्दजी सुरपुरिया ने उसका मराठी अनुवाद किया। सतारा के श्रेष्ठिवर श्री मोतीलाल जी मुथा का इसमें विशेष सहयोग रहा। अहमदनगर महाराष्ट्र का प्रमुख नगर एवं स्थानकवासी जैन संघ का प्रमुख केन्द्र होने से यहाँ अच्छी धर्मप्रभावना होती थी। नगर का संघ सरल, भक्तिमान, सेवाभावी
और महाराष्ट्र का कर्णभूषण कहा जा सकता है। श्री माणकचन्दजी मुथा, भाऊ सा. श्री कुन्दनमलजी फिरोदिया, श्री पूनमचन्द जी भण्डारी आदि यहाँ के प्रमुख कार्यकर्ता थे। श्री सिरहमलजी लोढा, धोंडी रामजी आदि श्रावक शास्त्र-श्रवण के उत्तम रसिक थे। सेवाभावी श्री मेघराजजी मुणोत एवं श्री कुन्दनमलजी जसराजजी गूगले की भक्ति विशेष सराहनीय थी। यहाँ एक श्रावक ऐसे थे जो १७ वर्षों से दुग्धाहार ही करते थे एवं मौन रखते थे । रत्नवंश की परम्परा के मूलपुरुष पूज्य कशलोजी म. के सांसारिक वंशज सोनई के श्री केशरीमलजी, उत्तमचन्दजी चंगेरिया का परिवार भी यहाँ ही रहता था चंगेरिया परिवार ने भी सेवा का पूरा लाभ लिया।
चरितनायक महाराष्ट्र के विभिन्न ग्रामीण क्षेत्रों में यत्र-तत्र बसे हुए लोगों को धर्मबोध देने के लक्ष्य से आरणगांव, अकोलनेर, सारोला, आस्तगांव, राजनगांव, बेलबण्डी, लूनी, पारगांव आदि क्षेत्रों में पधारे और धर्म मार्ग से उदासीन हुए जैन गृहस्थों को बोध देते हुए श्रीगोमदा पधारे । यहाँ से धर्म-प्रचार करते हुए कुण्डे गव्वण, विट्ठाण होते हुए पौषकृष्णा १३ को घोड़नदी पधारे। वहाँ कोटा सम्प्रदाय के स्थविर मुनि श्री प्रेमचन्द जी म. आदि सन्त एक ही
उपासरे में आचार्यश्री के साथ बिराजे । परस्पर सौहार्द रहा। स्थानकवासी सत्तर घरों की बस्ती वाले इस गांव | में पशु बाजार लगता था जिसमें वध के लिए पशुओं का क्रय-विक्रय होता था। आचार्य श्री की प्रेरणा से यहां के प्रमुख श्रावक श्री प्रेमराज जी खाबिया ने उस पशु बाजार को बन्द करवाया तथा जिन स्थानों पर बकरों या पाडों की बलि दी जाती थी वहां बलि भी बंद करवाई। यहाँ सेठ झूमरमलजी, खाबियाजी आदि श्रावक बड़े सेवारसिक थे। अधिकांश लोग मारवाड़ के कोसाणा आदि ग्रामों से आए होने से उनको पूर्व की गुरु-परम्परा की स्मृति सहज थी। साधु-साध्वियों के पठन-पाठन की दृष्टि से यह क्षेत्र अच्छा साताकारी था। महासती मगनकँवरजी ने यहाँ से दीक्षा ग्रहण कर पूज्य छगनलालजी महाराज की सन्निधि में साध्वीवर्ग की पूर्ति की थी। आचार्यश्री ने पूना की ओर प्रस्थान करते हुए मार्गस्थ ग्रामों के साधुमार्ग की श्रद्धा से शिथिल हुए लोगों को प्रेरणाप्रद बोध देकर धर्म में स्थिर किया। कारेगांव, राजणगांव, कोढापुरी, तलेगांव, फूलगांव, बागोली, ऐरवाड़ा होते हुए माघशुक्ला सप्तमी को पूना पदार्पण किया।
पूना में सादड़ी मारवाड़ के जैन बंधु अपनी अनेक दुकानें चलाने के साथ संघोपयोगी कार्यों में उदारता के | साथ धनराशि लगाते थे। यहाँ स्थानकवासी परम्परा के १५० घर थे। पूना में बड़े स्थानक में सतियाँ विराजमान थीं, अत: आप छोटे स्थानक में विराजे । वहाँ के सिद्धान्तप्रेमी श्रावकों में श्री मुल्तानमलजी, श्री हीरालालजी , श्री धोंडीरामजी आदि मुख्य थे। श्राविका समाज में केशरबाई प्रतिभा सम्पन्न थी।
यहाँ कुछ दिन विराजने के अनन्तर आप खिड़की पधारे। यहाँ जैन विद्यालय चल रहा था। लूंकड परिवार की गुरुभक्ति से धर्मध्यान का अच्छा ठाट रहा। यहाँ वि.सं. १९९६ के चातुर्मास हेतु सतारा का शिष्टमंडल रायबहादुर (सेठ श्री मोतीलालजी मुथा के नेतृत्व में उपस्थित हुआ। श्रुतसेवा के महत्त्वपूर्ण कार्य को आगे बढ़ाने की दृष्टि से)