________________
0
.
नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं अनुमति प्रदान करें। इसके लिए श्री नाहर मुमुक्षु लक्ष्मीचन्द जी के ग्राम महागढ़ भी गये और उनके चाचा श्री इन्द्रमलजी चौहान आदि स्वजनों से अनुमति प्राप्त की। वैरागी प्रसन्न हो उठे। वि.सं. १९८९ की आषाढ़ कृष्णा पंचमी के शुभ मुहूर्त में दीक्षा उत्सव होने की सानंद तैयारियां होने लगी और निश्चित वेला में चतुर्विध संघ की विशाल उपस्थिति में परम विरक्त एवं परम विनीत श्रीलक्ष्मीचन्द जी को आचार्य श्री हस्तीमल म.सा. ने अपने मुखारविन्द से भागवती दीक्षा प्रदान की। नवदीक्षित मुनि ने तपश्चरण और शास्त्राध्ययन के साथ सेवाधर्म को प्राथमिकता दी। ये मुनि आचार्य श्री के प्रथम शिष्य थे, जो छोटे लक्ष्मीचन्द जी के नाम से विश्रुत हुए एवं अटूट सेवा-भक्ति के कारण आगे चलकर सन्तों के द्वारा 'धाय माँ' समझे गये। • रतलाम चातुर्मास (संवत् १९८९)
रतलाम चातुर्मास धर्मदास मित्रमण्डल और हितेच्छु मण्डल की संयुक्त विनति से धर्मदास मित्रमंडल के धर्मस्थानक में हुआ, जिसमें जिनशासन की प्रभावना तथा अभिनव सामूहिक धर्मजागरण से धर्म क्रान्ति का वातावरण निर्मित होने लगा। रतलाम के उक्त वर्षावासकाल में पण्डित श्री दुःखमोचन जी झा भी आचार्यश्री की सेवा में रहे। पण्डित जी के पास दोनों लक्ष्मी मुनियों का अध्ययन सुचारू रूप से प्रगति करता रहा। धर्मदास मित्रमंडल के धर्मस्थान के विशाल जैन पुस्तकालय में प्रायः सभी आगमों, टीका, भाष्य, चूर्णि आदि विषयों के अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का बड़ा अच्छा संग्रह था। सभी सन्तों ने विशेष कर आचार्यश्री ने इस पुस्तकालय का बड़ी रुचि के साथ उपयोग किया। कतिपय जटिल ग्रन्थों का अध्ययन आचार्यश्री ने पं. दुःखमोचन जी के साथ भी किया। आचार्य श्री ने इस प्रकार के पुस्तकालय और हस्तलिखित आगमों, आगमिक ग्रन्थों की पांडुलिपियों के ज्ञान भंडारों की आवश्यकता जोधपुर, जयपुर जैसे प्रमुख नगरों में भी महसूस की ताकि सन्तों, सतियों, श्रावकों, श्राविकाओं, स्वाध्यायियों, साहित्यसेवियों एवं शोधार्थियों का सहज सुलभ एवं उत्तम ज्ञानार्जन हो सके। इतिहास साक्षी है कि महापुरुषों के अन्तर्मन में उत्पन्न समष्टि के हित की भावनाओं को फलीभूत होने में अधिक विलम्ब नहीं होता। आचार्यश्री की इस भावना को दर्शनार्थ आये जोधपुर के चन्दनमल जी मुथा ने मूर्तरूप देते हुए कहा कि सवाईसिंह जी की पोल (सिंह पोल) में एक ऐसे ही विशाल पुस्तकालय की स्थापना का पूर्ण मनोयोग के साथ प्रयास किया जाएगा, जिसमें सभी शास्त्रों, उनकी टीकाओं, चूर्णियों, भाष्यों, महाभाष्यों तथा आगमिक साहित्य विषयक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का संग्रह होगा।
रतलाम चातुर्मासावास की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वहाँ विभिन्न सम्प्रदायों के सुदृढ़ गढ़ होते हुए भी सम्पूर्ण संघ में पारस्परिक सौहार्द और सद्भाव का वातावरण रहा। नीम का चौक स्थिरवासार्थ वयोवृद्ध श्री नन्दलालजी म.सा. विराजित थे। उनके साथ परस्पर पूर्ण प्रेम एवं वात्सल्य का दृश्य रहा। संघ के अग्रगण्य सुश्रावक श्री वर्द्धमानजी पीतलिया, श्री धूलचन्द जी भण्डारी एवं अन्यान्य जिज्ञासुओं की आचार्यश्री की सन्निधि में ज्ञानचर्चा एवं तत्त्वगोष्ठियां होती रहीं। स्वाध्याय एवं अध्यात्मचिन्तन का वातावरण बना रहा। गजोड़ावाले वयोवृद्ध हीरालालजी गांधी, चांदमल जी गांधी, लक्ष्मीचन्दजी मुणोत आदि की सेवाएं विशेष उल्लेखनीय रहीं। इस चातुर्मास में आचार्य श्री को टाइफाइड हो गया। तब वहाँ के संघ ने एवं वैद्य रामबिलास जी राम स्नेही ने पूर्ण तत्परता से सेवा की।