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आचार्य श्री मालव प्रदेश में
(विक्रम संवत् १९८८-१९८९)
आचार्य पद पर आरूढ़ हो जाने के पश्चात् भी चरितनायक में जिज्ञासावृत्ति एवं अध्ययनशीलता वृद्धिगत होती रही। होली चौमासी (फाल्गुनी पूर्णिमा) के बाद कोटा से झालरापाटन, बकानी , रायपुर, सुन्हेल, भवानी मण्डी, भानपुरा, रामपुरा पधारे। यहां पर शास्त्रज्ञ सुश्रावक श्री केसरीमल जी से शास्त्रज्ञान का आदान-प्रदान किया तथा रामपुरा की विनति देखकर अपना चातुर्मास रामपुरा के लिए निश्चित किया। वहाँ से संजीत होते हुए मन्दसौर की ओर विहार किया। मन्दसौर में तत्र विराजित आचार्यश्री मन्नालालजी एवं वैराग्यमूर्ति श्री खूबचन्द जी म.सा. आदि सन्त-मण्डल के साथ चरितनायक आचार्यश्री का सुमधुर समागम हुआ। निवास एवं व्याख्यान साथ हुआ। आप श्री ने पूज्य श्री मन्नालालजी म.सा. की सन्निधि में अनेक सैद्धान्तिक धारणाओं और छेदसूत्र की वाचना प्राप्त की। चरितनायक ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि पूज्य श्री दीक्षा के अवसर पर विराजमान थे, अत: उनकी बड़ी वत्सलता रही। सुश्रावक सेठ लक्ष्मीचन्दजी से भी पुराने सन्तों की धारणाएं जानने एवं सुनने का सुखद योग भी बना। मुनि श्री प्रतापमलजी महाराज भी आचार्यद्वय के मन्दसौर प्रवासकाल में साथ रहे। श्री ओंकारलाल जी बाफना, श्री कालूराम जी मारू श्री चैनराम जी, श्री चांदमल जी, श्री धनराज जी मेहता और किस्तूर चन्दजी जैसे सिद्धान्तरसिक श्रावकों ने बड़ी लगन एवं श्रद्धा से आचार्य श्री एवं सन्तवृन्द की सेवा की। मन्दसौर और झमकूपुरा के श्रावक-श्राविकाओं को छेद सूत्रों की वाचनाओं, तात्त्विक प्रश्नोत्तरों, प्रवचनों और बाह्य आभ्यन्तर तपश्चरण से अपने कर्म कालुष्य धोने का सुअवसर प्राप्त हुआ। आचार्य श्री के प्रवचनों से प्रभावित होकर जैन और जैनेतर धर्मों के अनुयायी बड़ी संख्या में उपस्थित होते। हसन बेग जैसे श्रद्धालु अपनी कविताओं से मुनिवृन्द के प्रति श्रद्धा प्रकट करते, जिससे श्रोता आनंद विभोर हो जाते । मन्दसौर में करजूवाले श्री चैनरामजी, चाँदमल जी और उनकी धर्मपत्नी | की धर्माचार्यों एवं धर्मगुरुओं के प्रति श्रद्धाभक्ति सराहनीय रही। __आपके आचार्य बनने के पश्चात् यह प्रथम अवसर था, जब आठ सन्त होते हुए भी तीन चातुर्मास स्वीकृत किए गये। अपना चातुर्मास रामपुरा के लिए तथा स्वामीजी श्री सुजानमलजी म.सा. आदि तीन सन्तों का चातुर्मास रायपुर के लिये पहले ही स्वीकृत कर चुके थे। अब मन्दसौर के श्रावकों की धर्माराधन की भावना को ध्यान में रखकर आचार्य श्री ने दो सन्तों श्री लाभचन्द जी एवं चौथमलजी का वर्षावास मन्दसौर में करने की स्वीकृति प्रदान
की और उन्हें आस-पास के क्षेत्रों में विचरण करते रहने के निर्देश दिए। इससे आचार्यप्रवर की सूझबूझ एवं | जिनशासन की अधिक से अधिक प्रभावना की दृष्टि का बोध होता है।
पीपलिया, मल्हारगढ़, नारायणगढ़ आदि क्षेत्रों को पावन करते आपश्री बाबाजी श्री भोजराजजी एवं मुनि श्री लालचन्द जी के साथ ठाणा ३ से विक्रम संवत १९८८ की आषाढ़ कृष्णा अष्टमी के दिन महागढ़ पधारे। धर्मस्थान के अभाव में श्री पन्नालालजी चौहान की दुकान में विराजे । सुश्रावक पन्नालाल जी के युवा पुत्र लक्ष्मीचन्द जी की धर्माराधना ने आचार्य श्री का भी ध्यान आकृष्ट किया और स्वयं लक्ष्मीचन्द तो ऐसे गुरुदेव को पाकर धन्य हो उठा |