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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड का शंखनाद गूंजा । आचार्यश्री ने इस बात पर बल दिया कि श्रावक और श्राविका वर्ग साधु-साध्वी के प्रति अपने 'अम्मापियरो' | के दायित्व का यदि सावधानीपूर्वक निर्वाह करें तो निश्चय ही श्रमणाचार में शिथिलता को अवकाश नहीं मिल सकता। आचार्य श्री की प्रेरणा एवं सक्रियता से दशवैकालिक सूत्र के ज्ञान से सम्पन्न जिनशासन के प्रहरियों की एक सबल टुकड़ी प्रशिक्षित हो गई । युवा एवं प्रौढ़ श्रावक वर्ग के समवेत स्वरों में किए गए शास्त्रीय पाठों और स्वाध्याय घोष से उन दिनों लाल भवन गुंजायमान हो उठता था । प्रात:काल नियमित सामायिक करने वाले बालक-बालिका, युवक प्रौढ सभी प्रतिदिन आचार्य प्रवर को अपनी प्रगति से अवगत कराते एवं नया पाठ स्तोत्र आदि सीखते । आचार्य श्री के सान्निध्य में ५५ उपवास की लम्बी तपस्या कर भोपालगढ़ वाले श्री धनराज जी । | बोथरा की धर्मपत्नी ने अपने को धन्य माना। बरेली के सुश्रावक श्री नगराजजी नाहर ने चार माह जयपुर में सेवा कर शास्त्रज्ञान अर्जित किया । 1 ६३ आचार्यश्री की उदारता अद्भुत थी । आचार्यपद पर आसीन गुरु हस्ती ने चातुर्मासावधि में अपने श्रावकों से उर्दू एवं अंग्रेजी का भी अभ्यास किया। उन्होंने साहित्यिक पत्रिकाओं एवं आधुनिक वैज्ञानिक साहित्य से नये ज्ञान-विज्ञान का भी परिचय प्राप्त किया। जयपुर के वयोवृद्ध श्रावक श्री केशरीचन्द जी चोरड़िया, श्री मगनमल जी कोठारी, श्री श्रीचन्दजी गोलेछा, श्री शान्तिलाल जी दुर्लभजी आदि सुश्रावकों का इस ज्ञानवर्धन में सीधा सहयोग | रहा । सर्व श्री मुन्नीलाल जी सेठ, श्री भंवरीलालजी मूसल, जतनमलजी नवलखा, मूलचन्द जी कोठारी, केसरी मल जी चोरड़िया, केसरीमलजी कोठारी आदि श्रावकों ने सेवा-भक्ति का लाभ लिया। जो प्रमुख अपराह्न काल में तरुणवय के आचार्य श्री द्वारा टीका से शास्त्र-वाचन एवं उसकी व्याख्या सुनकर जयपुर | शास्त्रमर्मज्ञ श्रावक अत्यन्त प्रमुदित होते थे । इन्हीं दिनों सैलाना वाले रतनलालजी डोशी का एक प्रश्न पत्र, सन्तों के पास भेजा गया था, चरितनायक के पास भी आया। इसमें प्रमुख प्रश्न थे - ( १ ) तीर्थङ्कर भगवान वस्त्ररहित होते हैं, उनके मुँहपत्ति नहीं होती है, तो फिर वे उपदेश कैसे करते हैं ? ( २ ) राजप्रश्नीय सूत्र में 'धूवं दाऊणं जिणवराणं' का क्या अर्थ है ? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर लिखवाने का चरितनायक के लिए प्रथम अवसर था। शास्त्र, टीका और चिन्तन के आधार से उत्तर लिखवाए। पृच्छक डोशीजी को सन्तोष हुआ । उन्होंने प्रत्युत्तर में लिखा कि मैंने चार-पाँच स्थानों पर प्रश्न भेजे, पर मुझे पं. रत्न शतावधानी जी म. और आपके उत्तर ही स्पष्ट और सन्तोषजनक प्राप्त हो सके। दीक्षा स्थविर, वयस्थविर सन्तों द्वारा अपने लघुवयस्क आचार्य श्री के प्रति प्रदत्त बहुमान अश्रुतपूर्व था । बड़े सन्त भी प्रत्येक बात के लिए यही फरमाते - 'पूज्य श्री से निवेदन करो'। चतुर्विध संघ के लिए उनकी आज्ञा ही प्रमाण थी। आचार्यपद ग्रहण करने के पश्चात् चरितनायक का यह प्रथम चातुर्मास जयपुर नगर में सभी दृष्टियों से उत्तम रहा। संघ में धर्म के प्रति अभिनव उत्साह का संचार और आध्यात्मिक चेतना का जागरण चातुर्मास की महती उपलब्धि थी । आचार्य श्री हाड़ौती की ओर मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा को अपने सन्तवृन्द के साथ आचार्य श्री ने जयपुर से टोंक की ओर विहार किया।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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