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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
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पीपाड़ पधारे। स्वामीजी ने श्री धूलचन्दजी सुराणा, जो प्रज्ञाचक्षु होते हुए भी एक अच्छे ज्योतिषी, वैद्य, घड़ीसाज, | कवि एवं संन्तों को अध्ययन कराने वाले थे, से पूछा - "सागरमलजी म. संथारा करना चाहते हैं, इस सन्दर्भ में आप | क्या कहना चाहेंगे?" श्री धूलचन्दजी सुराणा ने नक्षत्र आदि के आधार पर कहा - " जिस नक्षत्र में तप चालू किया है, उसमें संथारा लम्बा चलेगा। एक महीने पहले संथारा सीझने की स्थिति नहीं है, आप जल्दी पधारें, ऐसी आवश्यकता नहीं, आप तो धीरे-धीरे भी पधार सकते हैं।” चरितनायक संघ- व्यवस्थापक बाबाजी महाराज के साथ मेड़ता होते हुए २५ दिनों में किशनगढ़ पहुंचे। श्री सागरमलजी महाराज की तपस्या की बात तब तक आस-पास के क्षेत्रों में हवा की तरह फैल गई थी। श्री सागरमुनि जी ने अपनी शारीरिक स्थिति बताते हुए संथारे के लिए प्रार्थना की। बहुत कुछ समझाने के पश्चात् भी दृढ़ मनोबली सागरमुनिजी अपने संकल्प से विचलित नहीं हुए।
मुनिश्री का तप चल ही रहा था। चरितनायक से अनुज्ञा मिलने पर चतुर्विध संघ की साक्षी से उन्हें यावज्जीवन संथारे के प्रत्याख्यान करवा दिए गए। ज्यों-ज्यों संथारे का समय बीतता गया, तप के प्रभाव से शरीर में कोई वेदना ही नहीं रही । सागरमुनिजी म. शान्त, दान्तभाव से आत्मलीन थे । अमरचन्दजी छाजेड़ की पोल में सन्तदर्शन हेतु मेला लग गया । चरितनायक भी स्वाध्याय सुनाकर अपने गुरुभ्राता मुनि की इस धर्म - साधना में सहयोग प्रदान कर रहे थे । शास्त्र और अध्यात्म ग्रन्थ का स्वाध्याय सुन मुनि श्री बहुत प्रसन्न होते । दर्शनार्थ आने | वाले हजारों भाई-बहनों के गमनागमन से किशनगढ़ तीर्थभूमि बन चुका था । गुजरात, पंजाब, राजस्थान, उत्तरप्रदेश | आदि विभिन्न प्रदेशों से दर्शनार्थी किशनगढ़ की ओर उत्सुकता आ रहे थे । श्रावक बन्धुओं में बरेली के श्री नगराजजी नाहर, लाला रतनलालजी नाहर, सेठ चन्दन मलजी मुथा सतारा वाले, श्री आनन्दराज जी सुराणा जोधपुर, श्री लालचन्दजी मुथा गुलेजगढ़, श्री धीरजभाई तुरखिया एवं जयपुर, जोधपुर, अजमेर, दिल्ली आदि के श्राव संघ-सेवा का अलभ्य लाभ ले रहे थे ।
यद्यपि समभावस्थ मुनिश्री आत्मभाव में लीन होकर अपनी साधना में मग्न थे, पर ग्रीष्मकालीन तीक्ष्णताप | और संथारे का लम्बान लोगों के लिए चिन्ता का विषय था । मुनि-मन पर उसका कोई असर नहीं था । किन्तु कुछ भक्तों के मन को सन्तोष नहीं था । भावुक भक्त गम्भीरमलजी सांड ने खिन्न मन से चौक में बग्घी पर खड़े होकर | अंग्रेजी में भाषण दिया कि मुनिश्री को इस तरह भूखे न मारा जाय। बात दरबार तक पहुंची । तप के ४० वें दिन दरबार ने वहां के अंग्रेज दीवान पावलस्कर को जानकारी के लिये भेजा। दीवान सन्तों के चरणों में उपस्थित हुआ । उत्तर दियाउसने श्री सागरमलजी म.सा. से पूछा- “आपको क्यों मारा जा रहा है ?” महाराज श्री ने शान्त भाव “मुझे कोई नहीं मार रहा है । यह शरीर मुझे छोड़ने को तैयार है, तो मैं इसे क्यों न छोड़ दूँ। मैं आपसे एक बात पूछता हूँ - " आपको कोई घर से घसीट कर बाहर निकालना चाहे और कर दो, नहीं तो घसीट कर धक्के देकर बाहर निकाल दिया जायेगा उत्तर था - " मैं खुद घर छोड़ दूँगा।" बस यही बात है । छोड़ने में आनन्द है, छूट जाने में दुःख । आप ही बताइए मेरा शरीर काम नहीं करता, वह मुझे छोड़ देना चाहता है, तो मैं खुद उसे क्यों नहीं छोड़ दूँ । मुझे कोई नहीं मार रहा। मैंने अपनी इच्छा से यह संथारा किया है।" दीवान साहब को बात समझ में आ गई उन्होंने तपस्वी सन्त को | नमन किया एवं दरबार को रिपोर्ट दी। प्रजा में शान्ति थी। सभी मुनिश्री की सहज शान्ति - साधना एवं संकल्प की दृढ़ता से प्रभावित थे। लोगों को यह बात भलीभाँति समझ में आ गयी थी कि संलेखना - संथारा आत्महत्या नहीं, अपितु आत्म-कल्याण का साधन है । आत्महत्या तो राग-रोष के आवेश में आकर अशुभ भावों में की जाती है, जबकि संथारा पूर्वक समाधिमरण का वरण समतापूर्वक शुभ भावों में किया जाता है -
कहे कि दो घण्टे के भीतर-भीतर घर खाली दीवान साहब, ऐसे में आप क्या करेंगे ?”