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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
४३ श्री कन्हैयालाल जी, पंडित श्री सुखलाल जी और पंडित श्री सदानंद जी आदि का सुयोग उनके ज्ञानवर्धन में सहयोगी बना । 'पढमं नाणं तओ दया' की परिपालना में मुनि श्री के जीवन में ज्ञान और क्रिया का अनूठा समन्वय रहा। आचार्य शोभा गुरु के सान्निध्य में मुनि श्री हस्ती का आगम-ज्ञान तथा संस्कृत अध्ययन निखरता गया। मुनि हस्ती के अध्ययनकाल में पण्डित सदानंद जी ने एक व्यंग्योक्ति की- “पण्डित जैन साधु भी एक साधारण पढ़े-लिखे ब्राह्मण के बराबर नहीं होता।” पण्डितजी की इस व्यंग्योक्ति को उन्होंने जैन श्रमण परम्परा के स्वाभिमान को दी गई चुनौती के रूप में स्वीकार किया एवं मन ही मन संस्कृत तथा प्राकृत भाषा का गहन अध्ययन करने का दृढ संकल्प | कर लिया।
इधर मुनिश्री जोधपुर प्रवासकाल में अहर्निश परिश्रम से विद्याभ्यास में संलग्न थे और उधर अजमेर में | विक्रम संवत् १९७९ भाद्रपदकृष्णा अमावस्या के दिन बाबाजी श्री हरखचन्द जी म.सा. का स्वर्गवास हो| गया। बाबाजी श्री हरखचन्द जी म.सा. के द्वारा ही मुनिश्री में प्रारम्भिक शिक्षा-संस्कारों का बीजारोपण हुआ था तथा उनके वात्सल्यमय संरक्षण में ही मुनि श्री को मुनि-जीवन पर आरूढ होने की प्रेरणा और सम्बल मिला था। मुनि श्री पर इस घटना से वज्राघात हुआ, नयनों पर बाबाजी महाराज की वात्सल्यमयी मूर्ति मंडराने लगी। मुनि श्री ने | तत्त्वों का अध्ययन ही नहीं, चिन्तन भी किया था। वे शरीर की नश्वरता और आत्मा की अमरता से परिचित थे। उन्होंने स्वर्गस्थ बाबाजी को श्रद्धांजलि स्वरूप 'चार लोगस्स' का ध्यान किया और दृढ़ मनोबल से वे इस आघात को सह गए। मुनि श्री हस्ती के दृढ़ मनोबली जीवन पर आचार्य श्री शोभागुरु की छाप थी। आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. स्वभाव से शान्त व धीर एवं हृदय से विशाल थे।
चातुर्मासोपरान्त जोधपुर शहर से विहार कर मुनि श्री हस्ती अपने गुरुदेव आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी महाराज के साथ महामंदिर पधारे। मार्ग में विहार के समय भक्तिवश सैंकड़ों लोग नंगे पैर साथ चले। महामंदिर में सभी सन्त कांकरियों की पोल में विराजे। यहाँ पर हरसोलाव निवासी श्री लूणकरणजी बाघमार की भागवती दीक्षा का मुहूर्त मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा का निश्चित किया गया। संयोगवश उन्हीं दिनों ऐसी घटना घटी कि एक बहिन ने | स्वप्न में महासती छोगाजी के दर्शन किए। उस बहिन ने आचार्य श्री की सेवा में निवेदन किया कि महासती जी म. | सा. यहाँ पधार जावें तो मैं दीक्षा ग्रहण कर लूँ । इधर बहिन कहकर गई और आचार्य श्री आहार के लिए विराजे । कुछ ही काल पश्चात् द्वार पर आकर किसी ने आवाज लगाई कि महासती छोगां जी पधारे हैं। सबके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। बहिन का मनोरथ पूर्ण हो गया एवं उसने अपनी प्रतिज्ञा का सहर्ष निर्वाह किया।
महामंदिर की ही एक अन्य बहन ने भी दीक्षा की भावना व्यक्त की। जोधपुर के प्रमुख श्रावक श्री चन्दनमल जी मुथा के प्रयासों से मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा के दिन मुथा जी के मंदिर में एक साथ तीन दीक्षाएं-श्री लूणकरण, श्रीमती छोगाजी (लोढण जी) एवं श्रीमती किशनकंवर की सम्पन्न हुई। मुनिश्री हस्ती के प्रवजित होने के पश्चात् आचार्य श्री शोभागुरु की निश्रा में प्रव्रज्या-समारोह का यह द्वितीय अवसर था। नवदीक्षित लूणकरण का नाम मुनि श्री लक्ष्मीचन्द रखा गया तथा उन्हें स्वामीजी श्री सुजानमल जी म. का शिष्य घोषित किया गया। इससे पूर्व जोधपुर के सिंहपोल में वैशाख माह में संवत् १९७९ में ही दो विरक्ता बहनों श्रीसज्जनकँवर जी एवं श्री सुगनकँवर जी पारख की दीक्षाएँ सम्पन्न हुई थीं।
___ आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. वृद्धावस्था के कारण स्वास्थ्य की दृष्टि से दुर्बल हो चले थे। समय-समय पर होने वाले ज्वर से उनकी शक्ति क्षीण हो गई थी एवं आवश्यक दिनचर्या में थकान का अनुभव करने लगे थे।