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________________ ४२ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं विहारकाल में मुनिश्री को जो अभिनव अनुभव हुए, उनसे उनके उत्साह में और अधिक वृद्धि हुई। • भोपालगढ़ की ओर वापसी यात्रा में नागौर में कतिपय दिन धर्मलाभ देकर रूण, नोखा-चांदावतों का होकर हरसोलाव में हवेली में विराजे जहां पूज्य श्री कानमलजी एवं चैनमलजी म.सा. का आगमन एवं प्रेम मिलन हुआ। विभिन्न क्षेत्रों में दया धर्म का प्रचार करते हुए आचार्य श्री मुनिश्री हस्ती के साथ ७ ठाणा से रजलाणी होते हुए आचार्य श्री रत्नचन्द्र जी म.सा. की ऐतिहासिक क्रियोद्धार स्थली भोपालगढ़ (बड़लू) पधारे। भोपालगढ़ तथा आस-पास की ढाणियों और जोधपुर आदि नगरों से दर्शनार्थ पहुंचे आबाल वृद्ध नरनारी वृन्द ने आचार्य श्री शोभा गुरु और तेजस्वी मुनि हस्ती सहित सातों सन्तों को ऐसे देखा जैसे सप्तर्षि मंडल धरती पर उतर आया हो । भोपालगढ़ के श्रावकों की धर्म के प्रति अटल श्रद्धा, अविचल निष्ठा और अटूट आस्था प्रसिद्ध रही है। सन्तों के आगमन के स्वागत में नारी समाज के गीतों का हृदयहारी संगीत शासनपति श्रमण भगवान महावीर तथा उनके क्रमागत पाटानुपाट उत्तराधिकारी के रूप में तत्कालीन अस्सीवें पट्टधर आचार्य श्री शोभागुरु के जयघोषों से बालमुनि हस्ती भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। सामायिक, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, व्रत-प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि की होड़ सी लग गई। मुनि हस्ती का अध्ययन क्रम भी नया बास स्थित श्री जालमचन्द्र जी ओस्तवाल के मकान में विराजने पर सुचारुरूपेण चलता रहा। साध्वाचार एवं क्रियोद्धार के सम्बंध में अनेक जिज्ञासाएं प्रकट कर मुनि हस्ती ने आचार्य शोभा गुरु तथा बाबाजी हरखचन्द जी महाराज आदि सन्तों से पर्याप्त जानकारी प्राप्त की। यहाँ पर सतारा से सुप्रसिद्ध दानवीर श्रावक सेठ श्री मोतीलालजी मुथा आचार्यप्रवर श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. के दर्शनार्थ पधारे। नवदीक्षित सन्तों को देखकर आचार्य श्री को निवेदन किया-“छोटे छोटे सन्त हैं, विद्यार्थी हैं, अत: इन्हें पारणक में छाछ और खांखरा देने की बजाय दूध में घी देना चाहिये ताकि इनकी बुद्धि अधिक कार्य कर सके।” आचार्यप्रवर ज्यों ही इसका प्रतिवाद करने को उन्मुख हुए वहां विद्यमान सुज्ञ एवं दृढ श्रद्धालु श्रावक श्री मोतीचन्दजी चोरड़िया तुनक कर बोले - “यह जहर देने की बात क्यों करते हो ? क्या इनके बडेरे पढ़े-लिखे नहीं| थे? क्या वे बहुश्रुत नहीं थे ? क्या वे प्रतिदिन दूध और घी खाते थे ? वे तो पौरसी करते थे। अत: आप सन्तों को रसलोलुप न बनाएँ ।” शास्त्र भी कहता है - दुद्धदहिविगइओ आहारेइ अभिक्खणं । अरए तवोकम्मे पावसमणेत्ति वुच्चइ ।।-उत्तराध्ययन सूत्र १७.१५ जो दूध, दही आदि विगयों का नियमित सेवन करता है एवं तपकार्य में अरति रखता है। वह पाप श्रमण कहलाता है। मोतीचन्द जी चोरड़िया का कथन आचार्य श्री की आचार संहिता को पुष्ट कर रहा था। • जोधपुर के पाँच वर्षावासों (संवत् १९७९-१९८३) में योग्यता-वर्धन __ भोपालगढ़ से विहार कर हीरादेसर, दहीखेड़ा, सूरपुरा, महामंदिर आदि क्षेत्रों को फरसते हुए आचार्य श्री के साथ आप जोधपुर पधारे। जोधपुर में विक्रम संवत् १९७९ का चातुर्मास अजमेर निवासी श्री उम्मेदमलजी सा. लोढा के पेटी के नोहरे में हुआ। ज्ञातव्य है कि आचार्य श्री के अजमेर प्रवास के समय उनकी सत्प्रेरणा से यह मकान लोढाजी ने धर्मध्यान के लिये खाली रखने के भाव अभिव्यक्त किये थे। मुनिश्री के लिए अध्यापक श्री धनराज जी,
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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