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मेरे हमदम
मेरे दोस्त
डा. कुमारपाल देसाई का नाम लेते ही एक प्रसन्नचित्त स्मित करता हुआ चेहरा आँखों के सामने मूर्तिमंत होने लगता है। 60 वर्ष का युवा कैसा हो सकता है यह तो कोई कुमारपाल से मिले तभी अनुभव कर सकता है । कर्म और पुरुषार्थ जिसके जीवन के मूलमंत्र रहे हैं उन कुमारपाल को ये संस्कार माँ के दूध और पिता की परवरिश से प्राप्त हुए हैं। चंद्रमुखी प्रतिभा के धनी कुमारपाल ने साहित्य को जीवन की साधना माना, शिक्षण और पत्रकारत्व उसी साधना की पुष्टि करते रहे । ‘समाजसेवा मानव धर्म है' इसे सदैव ध्यान में रखकर वे जैन धर्म और दर्शन के लेखन-प्रचार-प्रसार के पहरूवे बने रहे।
वीरों और संतों की भूमि सौराष्ट्र के गाँव राणपुर में 30 अगस्त 1942 के दिन पूज्य जयाबहनकी कुक्षि से जन्मे कुमारपाल को माँ का दुलार और गुजराती के महान लेखक श्री बालाभाई देसाई जो 'जयभिक्खू' के नाम से प्रसिद्ध थे – उनका प्यार मिला।
यह एक सुभग समन्वय ही था कि भारत छोड़ो आंदोलन के क्रांतिवर्ष में इस वैचारिक क्रांति के उद्घोषक का जन्म हुआ। पिता लेखक थे, साहित्यकार थे। साहित्यकार की करुणा, प्रकृतिप्रेम, समाज के प्रति संवेदना जैसे तत्त्व कुमारपाल को प्रेरणारूप प्राप्त हुए तो व्यक्तित्व के विकास में वात्सल्य के भाव माता से प्राप्त हुए। ____ अध्ययन में विचक्षण बुद्धि के धारक बालक की बुद्धि का विकास दूज के चंद्रमा सा होता गया और एक दिन गुजराती साहित्य के गगन पर वह चमक बिखेरने
शेखरचंद्र जैन
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