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जैन पुराण साहित्यिक ग्रंथों में राजा की उत्पत्ति का जो वर्णन किया गया है वह निम्नलिखित है :
जैन मतानुसार पुराणों में राजा की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन किया गया है। जैन पौराणिक ग्रंथों में बताया गया है कि राजा की उत्पत्ति से पूर्व समाज में कुलकर व्यवस्था थी। कुलकर व्यवस्था से पूर्वं न समाज था, न कुल था, न जाति और न वर्ग थे । कुलकर व्यवस्था से पूर्व जनसंख्या कम थी तथा आवश्यकताएँ भी सीमित थीं। दस प्रकार के कल्पवृक्षों द्वारा आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती थी। उस समय मानव स्वभाव से शान्त प्रकृतिवाला, शरीर से स्वस्थ और स्वतंत्र जीवनयापन करने वाला था, वह न किसी की सेवा करता और न ही किसी से सेवा, सहयोग करवाता था। धर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। उस समय न सेवक था, स्वामी। सभी समान अधिकार रखते थे। वर्ण-व्यवस्था भी उस समय नहीं थी। चोरी, लूट, खसोट, हत्याएँ आदि भी नहीं होती थीं। वह युग स्वर्ण-युग कहलाता था। लेकिन यह स्वर्णिम-युग अधिक समय तक नहीं रहा। कालचक्र के छह आरों में से तीसरे आरे में एक पल्योपम का आठवां भाग अवशेष रहने पर सहज समृद्धि का ह्रास होने लगा। यूगलिकों के शरीर का प्रमाण घटने लगा। एक ओर आवश्यकता पूर्ति के साधन कम होने लगे, दूसरी तरफ जनसंख्या में वृद्धि होने लगी। साथ ही कल्पवृक्षों की शक्ति क्षीण होने लगी। जो व्यक्ति पहले तीन दिन पश्चात् भोजन करते थे अब प्रतिदिन भोजन करने लगे।
उपर्युक्त परिस्थितियों ने मानव स्वभाव में परिवर्तन ला दिया। ज्योंही जीवन की थोड़ी आवश्यकताएँ बढ़ीं, उनके निर्वाह के साधन दुर्लभ हुए कि लोगों में संग्रह और अपहरण की भावना उभर आई। अपराधी मनोवृत्तियाँ पनपने लगीं। समाज में अराजकता व्याप्त हो गयी, व्यक्ति आपस में संघर्ष करने लगे। इस प्रकार फैली हुई अराजकता ने एक नई व्यवस्था की प्रेरणा दी, जो कि कुलकर व्यवस्था कहलाई। इस व्यवस्था के अनुसार लोग कुल बनाकर रहने लगे। उन कुलों का एक मुखिया होता था जो कि कुलकर कहलाता था। वे सर्वसत्ताधीश होते थे। यही नियमउपनियम बनाकर कुलों का संरक्षण करते थे। यह सब कुलों को धारण करने से कुलकर नाम से प्रसिद्ध हुए।