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(६७) यह सभी विधियाँ अविनाशी होती थीं। दिग्विजय से लौटते समय गंगा के पश्चिमी तट पर अट्ठम तप के तदुपरांत चक्रवर्ती सम्राट को प्राप्त होती थी। प्रत्येक निधि एक-एक हजार यक्षों से अधिष्ठित होती थी। इनकी ऊँचाई आठ योजन, चौड़ाई नौ योजन और लम्बाई बारह योजन होती थी। चन्द्र और सूर्य के चिह्नों से चिह्नित होती थी, तथा पल्योपम की आयु वाले नागकुमार जाति के देव इनके अधिष्ठायक होते थे।
ये नौ निधियाँ कामवृष्टि नामक गृहपति-रत्न के अधीन थी एवं चक्रवर्ती के समस्त मनोरथों को सदैव पूर्ण करती थी।
हिन्दू धर्म-सूत्रों में नवनिधियों के नाम इस प्रकार बताये गये है :(१) महापद्म, (२) पद्म, (३) शंख, (४) मकर, (५) कच्छप, (६) मुकुन्द, (७) कुन्द, (८) नील और (९) खर्व । ये निधियाँ कुबेर का खजाना भी कही जाती थी।
राजा के विषय में और भी कहा गया है कि समाज में फैली हुई अराजकता को दूर करने के लिये शान्ति एवं सुव्यवस्था स्थापित करने के लिए, वर्ण संकरता को रोकने के लिए तथा लोक-मर्यादा की रक्षा करने के लिए राजपद की आवश्यकता होती है। सभी प्राचीन राजनीतिज्ञों ने राजपद की आवश्यकता को स्वीकार किया है। राजा का अर्थ है, प्रजा का रंजन करने वाला। महाभारत शान्तिपर्व में युधिष्ठिर द्वारा राजा शब्द की व्याख्या करने का आग्रह किये जाने पर भीष्म उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि समस्त प्रजा को प्रसन्न करने के कारण उसको राजा कहते हैं। राजा की उपस्थिति में ही प्रजा समाज में सुख-शान्तिपूर्वक जीवन-यापन कर सकती है। इसके साथ ही धर्म, अर्थ एवं काम रूप त्रिवर्ग के फल की प्राप्ति करती है। (II) राजा की उत्पत्ति
राजा की उत्पत्ति किस प्रकार हुई इस सम्बन्ध में भारतीय विचारकों ने कई सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है । जो अग्रलिखित हैं :
१. त्रि० श० पु० च० १/४/५६८-५७३. २. हरिवंश पु० ११/१२३. ------- - १. महाभारत शान्तिपर्व ५६/१२५. ....