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________________ उपलब्ध है :-स्वामी, अमात्य, दण्ड, जनस्थान, गढ़, कोष तथा मित्र ।' जैनेत्तर ग्रन्थों में भी राज्य के सप्तांगों की विवेचना की गई है। वस्तुतः प्रकृति और अंग शब्द समानार्थ में प्रयुक्त हुआ है। "प्रकृति" शब्द राज्य के मण्डल के अंगों का भी द्योतक है। शुक्रनीतिसार में "प्रकृति" शब्द का तात्पर्य मंत्रियों से किया है। रघुवंश में इसका अर्थ प्रजा के लिए भी आया है। शुक्रनीतिसार में राज्य के सप्तांगों की तुलना शरीर के अंगों से की गई है। उसमें बताया गया है कि राजा सिर, मंत्री नेत्र, मित्र कान कोष मुख, बल (सेना) मन, दुर्ग (राजधानी) हाथ, राष्ट्र पैर हैं । कामन्दक ने लिखा है कि राज्य के सप्तांग एक दूसरे के पूरक है। यदि राज्य का कोई अंग दोषपूर्ण हुआ तो राज्य ठीक से नहीं चल सकता। मन ने राज्य के सभी अंगों की एकता पर बल दिया है। राज्य के उपर्युक्त सात अंगों में से यहाँ पर हम सिर्फ जन-स्थान १. स्वाम्यज्ञात्यो जनसंस्थान कोशो दण्ड: सगुप्तिकः । मित्रं च भूमिपालस्य सप्तः प्रकृतयः स्मृताः ॥ महा पु० ६८/७२. २. स्वाम्यमात्य जनपद दुर्ग कोश दण्डमित्रापि प्रकृतयः । अर्थशास्त्र ६/११० ४१५. स्वाश्यमात्यो पुरं राष्ट्र कोशदण्डो सुहृत्तथा। सप्त प्रकृतयो होताः सप्ताङ्ग राज्यमुज्यते ॥ मनु. ६/२६४. स्वाभ्यमात्मा जनो दुर्ग कोशौ दण्डतथैव च। मित्राण्येताः प्रकृतयो राज्यं सप्तांग मुच्यते ॥ याज्ञवल्क्यस्मृतिः सम्पा० सुन्दरमल, बम्बई : श्री वेङ्कटेश्वर, १६००, १/३५३. महाभारत शान्तिपर्व, ६६/६४-६५, मत्स्यपुराणः कृष्णद्वैपायन २२५/११, अग्निपुराणः अनु० एस० एन० दत्त, कलकत्ता १६०३, २३३/१२, कामन्दकीय नीतिसार १/१६. ३. अर्थशास्त्र ६/२ पृ० ४२२. ४. शुक २/७०-७३. ५. रघवंश कालिदास कृत-वाराणसी: चौखम्बा प्रकाशन १९६१ ८/१८. ६. शुक्र १/६१-६२. ७. कामन्दक ४/१-२. ८. मनु ६/२६५.
SR No.032350
Book TitleBharatiya Rajniti Jain Puran Sahitya Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhu Smitashreeji
PublisherDurgadevi Nahta Charity Trust
Publication Year1991
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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