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अर्थात् नापित कर्म सिखाया। इन पाँच मूल शिल्पों के बीस-बीस भेदों से १०० प्रकार के कर्म उत्पन्न हुए । ' इसके अतिरिक्त व्यवहार की दृष्टि से मान, उन्मान, अपमान, तथा प्रतिमान का भी ज्ञान कराया ।
ऋषभ स्वामी ने कला-विज्ञान की भी शुरूआत की । अपनी पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से अठारह प्रकार की लिपियों का ज्ञान कराया । सुन्दरी को बायें हाथ से गणित की शिक्षा दी । " ज्येष्ठ पुत्र भरत को ७२ कलाओं का तथा बाहुबलि को प्राणी लक्षण का ज्ञान कराया। अपनी पुत्री ब्राह्मी के माध्यम से स्त्रियों की ६४ कलाएँ भी सिखलाई ।
भगवान आदिनाथ से पूर्व भारतवर्ष में वर्ण व्यवस्था नहीं थी, क्योंकि उस समय सब लोगों की एक ही जाति थी । ऊँच-नीच का कोई भेदभाव नहीं था। सभी लोग कल्पवृक्षों द्वारा प्राप्त सामग्री से सन्तोषपूर्वक जीवनयापन करते थे । जब लोगों में विषमता बढ़ी और लोभ, मोह का संचार हुआ तब भगवान ऋषभदेव ने वर्ण-व्यवस्था का सूत्रपात किया ।
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जो लोग शारीरिक दृष्टि से सुदृढ़ और शक्तिशाली थे, उन्हें प्रजा की रक्षा के कार्य में नियुक्त कर पहचान के लिए "क्षत्रिय" शब्द की संज्ञा दी । जो लोग कृषि, पशुपालन वस्तुओं के क्रय-विक्रय में अर्थात वाणिज्य में निपुण थे उन लोगों के वर्ग को " वैश्य वर्ण" की संज्ञा दी । for कार्यों को करने के लिए वैश्य लोग अरुचि एवं अनिच्छा व्यक्त करते थे, उन कार्यों को करने के लिए तथा जनसमुदाय की सेवा करने को जो तत्पर हुए उन्हें "शूद्र" की संज्ञा दी। इस प्रकार ऋषभ स्वामी ने क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तीन वर्णों की स्थापना की।
१. आ० चूर्णी : जिनदास गणि महत्तर, ऋषभदेवजी केशरीमल जी, रतलाम : श्वेताम्बर संस्था १९८४, पूर्व भाग पृ० १५६.
२. आ० नि० गा० २१३-१४.
३. आ० नि० गा० २१२.
४. आ० नि० गा० २१३. ५. आदि
पु० पर्व १६ श्लोक २४३ से २४६.