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को कोई स्थान नहीं है । दिगम्बर परम्परा ने दृष्टिवाद के परिकम में इन तीनों प्रज्ञप्तियों का समावेश किया है; और दृष्टिवाद के अंश का अविच्छेद भी माना है । तो यही अधिक सम्भव है कि ये तीनों प्रज्ञप्तियाँ विच्छिन्न न हुई हों। इनका उल्लेख श्वेताम्बरों के नन्दी आदि सूत्रों में भी मिलता है। अतएव यह तो माना ही जा सकता है कि इन तीनों की रचना श्वेताम्बरदिगम्बर के मतभेद पूर्वं ही हो चकी थी। इस दृष्टि से इनका रचना काल विक्रम के प्रारम्भ से इधर नहीं आ सकता। अर्थात् इनका समय विक्रम पूर्व ही हो सकता है, बाद में नहीं।'
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति पर मलयगिरि ने टीका लिखी थी लेकिन वह कालदोष के प्रभाव से नष्ट हो गई। तत्पश्चात् इस पर कई टीकायें लिखी गईं। धर्मसागरोपाध्याय ने वि० सं० १६३६ में टीका लिखी जिसे उन्होंने अपने गुरु हीरविजय के नाम से प्रसिद्ध किया। पुण्यतागरोपाध्याय ने वि०सं० १६४५ में इसकी टीका की रचना की। यह टीका अप्रकाशित है। इसके बाद बादशाह अकबर के गुरु हीरविजय सूरि के शिष्य शन्तिचन्द्रवाचक ने वि० सं० १६५० में प्रमेयरत्नमंजूषा नाम की टीका लिखी। यह ग्रंथ दो भागों में विभाजित है-पूर्वार्ध और उत्तरार्धं । पूर्वार्ध में चार और उत्तरार्ध में तीन वक्षस्कार हैं, जो १७६ सूत्रों में विभक्त हैं ।२ ।।
_ पहले वक्षस्कर में जम्बूद्वीपस्थित भरत क्षेत्र (भारत वर्ष) का वर्णन है जो अनेक दुर्गम स्थान, पर्वत, गुफा, नदी, अटवी, श्वापद आदि से वेष्टित है। दूसरे वक्षस्कार में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी का वर्णन करते हुए सुषमा-सुषमा नाम के छ: कालों का विवेचन है। सुषमा-सुषमा काल में दस प्रकार के कल्पवृक्षों का वर्णन है जिनसे कि इष्ट पदार्थों की प्राप्ति होती थी। सुषमा-सुषमा नाम के तीसरे काल में १५ कुलकरों का जन्म हुआ जिनमें से अन्तिम कुलकर नाभि की पत्नी मरुदेवी से आदि तीर्थकर ऋषभदेव उत्पन्न हुए। ऋषभ कौशलदेश के निवासी थे तथा वे प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर, प्रथम धर्मचक्रवर्ती कहे जाते थे। उन्होंने ७२ पुरुषों की कलाएँ, स्त्रियों की ६४ कलाओं तथा अनेक शिल्पों १. पं० बेचरदास दोशी, सम्पा० पं० दलसुखभाई मालवणिया, डा० मोहनलाल
मेहता : जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भाग १, वाराणसी : पार्श्वनाथ
विद्याश्रम शोध संस्थान १६६६, प्रस्तावना पृ० ५३. २. वही . -------