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रामायण के अन्तर्गत राजपद कुल परम्परागत होता था। रामायण के सैंतालीसवें सर्ग में इक्ष्वाकु वंश का वर्णन किया गया है, इससे ज्ञात होता है कि राम से कई पीढ़ियों पूर्व तथा वाद में भी राजपद आनुवंशिक ही था। नूतन नृपति के चयन के लिए सभी की स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक था। भावी राजा का चुनाव करने के लिए पहले मंत्रीमण्डल को बलाया जाता था। तथा उसमें भावी राजा के चुनाव का प्रस्ताव रखा जाता था। मंत्रिमण्डल जब इस प्रस्ताव को पारित कर देता, तब उसको सभा द्वारा निर्वाचित कराया जाता था। इस प्रस्ताव पर सामन्त राजाओं की स्वीकृति भी ली जाती थी।' महाराजा दशरथ ने राम को युवराज वनाने से पूर्व अपनी सभा की स्वीकृति प्राप्त कर ली थी। राजा की अनुपस्थिति में मंत्रिगण मिलकर नवीन राजा का राज्याभिषेक कर सकते थे, जैसा कि बाली की अनुपस्थिति ने मंत्रियों ने मिलकर सुग्रीव का राज्याभिषेक किया था। उत्तरकाण्ड में राजा नृग ने प्रजाजनों, नगमों, मंत्रियों तथा पुरोहितो को बुलाकर उनके समक्ष अपने पुत्र को उत्तराधिकारी बनाने का प्रस्ताव रखा था। चित्रकूट पर भरत ने राम से आग्रह किया कि आप यहीं पर प्रजाजनों, ऋत्विजों तथा पुरोहित के हाथों अपना अभिषेक करा लीजिए।
उपर्युक्त उदाहरणों से तत्कालीन राजतंत्र में लोकतंत्र की पुष्टि होती है।
१. रामायण २/१/४६, २/१४/४०-४। २. यदिदं मेऽनुत्पार्थ मया साधु सुमन्त्रितम् । भवतो मेऽनुमन्यन्तांकथं वा करवा
व्यहम् ।
वही २/२/१५ ३. ततोऽहंतेः (मन्त्रिभिः) सभागम्य समेतिरभिषेचिते : वही ४/९/२१
--- ४. आहूय मन्त्रिणः सर्वान्नममान्सपुरोधसः । तानुवाच नृगोराजा सर्वांश्च प्रकृतीस्तथा।
"कुमारोऽयं वसुन म स चेहाद्याभिषिच्यताम् ॥ रामायण ७/५४/५-८ । ५. इहैव त्वामिषि चन्तु सर्वाः प्रकृतयः सह । श्रत्विजः सवसिष्ठाश्च मन्त्रविन्मत्रकोविद
वही २/१०६/२६.