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के पास दूत बनकर आया था उस समय छड़ीदार का कदम दूत को मारने के लिए उठा था लेकिन कुछ सोचकर रुक गया और केवल दूत को हाथ पकड़ करके ही आसन से उठा दिया। इस व्यवहार से सुवेग के मन में बहुत ही क्षोभ हुआ, क्रोध आया मगर वह धैर्य रखकर सभा से बाहर निकल गया ।' आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि दूत द्वारा महान अपराध किये जाने पर भी उसका वध नहीं करना चाहिए । यदि चाण्डाल भी दूत बनकर आया हो तो भी राजा को अपना कार्य सिद्ध करने के लिए उसका वध नहीं करना चाहिए ।' दूत समयानुसार सत्य, असत्य, प्रिय, अप्रिय सभी प्रकार के वचन बोलते थे । कोई भी बुद्धिशाली राजा दूत के कठोर वचनों से क्रोधित अथवा उत्तेजित नहीं होता था, अपितु उसका कर्त्तव्य है कि वह ईर्ष्या का त्याग करके उसके द्वारा कहे हुए प्रिय अथवा अप्रिय सभी प्रकार के वचनों को सुनें । जैन मान्यतानुसार यह बताया गया है कि दूत अपने स्वामी की निन्दा सुनकर शान्त नहीं रहते थे अपितु उसका यथायोग्य प्रतिकार करते थे।
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सैनिक द्वारा शास्त्र संचालित किये जाने पर भी दूत को अपना कार्य सम्पादित करना चाहिए और शत्रु राजा को अपना सन्देश सुना देना चाहिए । राजा चेटक और कूणिक युद्ध से पूर्व कूणिक द्वारा दो बार दूत भेजा गया था लेकिन जब तीसरी बार दूत को भेजा गया उस समय दूत ने अपने बायें पैर से राजा के सिंहासन का अतिक्रमण कर भाले की नोंक पर पत्र रखकर चेटक को समर्पित किया। युद्ध के लिए यह खुला आह्वान होता था । अतः राजा भयंकर युद्ध के समय भी दूत का वध नहीं करते थे । क्योंकि उनके द्वारा ही वह कार्य सिद्धि ( सन्धिविग्रहादि ) सम्पन्न कराते थे । जैन पुराणों के अनुसार स्त्री तथा पुरुष दोनों ही दूत का कार्य करते थे । महापुराण में इस प्रकार पुरुष दूत को कलह प्रेम और स्त्री दूती को धात्री' की संज्ञा दी गई दी है ।
१. त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र भाग १ पृ० ३७३.
२. नीतिवाक्यामृतम् १३ / २०२१ पृ० १७१. ३. जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज पु० १८.
४. महा पु० ५८ / १०२.
५. वही ६६ / १६६.