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दूतों के भेद :
महापुराण में दूत तीन प्रकार के बताये गये हैं। (१) नि.सृष्टाथदूत, (२) परिमिताय दूत एवं (३) शासनहारिण दूत।' (१) निःसृष्टार्थ दूत :
उस दूत को कहते हैं, जो दोनों पक्ष के अभिप्राय को ध्यान में रखकर स्वतः उत्तर-प्रत्युत्तर देता हुआ स्वकार्य सिद्ध करता है । इस प्रकार के दूत में अमात्य के सभी गुण विद्यमान रहते थे। इस कोटि के दूत की गणना उत्तम कोटि में होती थी। (२) परिमितार्थ दूत :
राजा द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर दूसरे राजा से वार्तालाप करने का इसे अधिकार था। इस दूत को राजा द्वारा भेजे हुए सन्देश को ही शत्रु राजा के सामने कहने का अधिकार था। यह मध्यम श्रेणी का दूत होता था। इसमें अमात्य का तीन चौथाई गुण होता था। (३) शासन हारिण दूत :
यह दूत अपने राजा के लेख को दूसरे राजा के पास ले जाने का अधिकार रखता था। इस के अधिकार इस कार्य तक ही सीमित थे। इसे निम्नकोटि का दूत माना जाता था। इसमें अमात्य के अर्धगुण ही विद्यमान रहते थे। दूत के कार्य :
व्यक्तिगत जीवन में दूत की आवश्यकता पड़ती थी। मुख्यतः इनका कार्य सन्देश पहुंचाना और लाना होता था।
महापुराण के अनुसार दूत राजा की पत्र-मंजूषा (पिटारा) ले
१. महा पु० ४३/२०२, को० अर्य० १/१६, पु० ४५.
नीतिवाक्यामृतम् १३/३ पृ० १७०. २. महा पु० ४४/१३६ टिप्पणी.