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( १८३) हमारे कुल की परम्परा से प्रीति चली आ रही है। यह सुनकर आर्द्र कुमार बहुत प्रसन्न हुआ और मंत्री से बोला, हैं मंत्री ! आपके स्वामी के कोई सम्पूर्ण गुणवाला पुत्र है ? उसको प्रीति का पात्र बनाकर मित्रता की इच्छा करता हूँ। मंत्री बोला, हे कुमार ! बुद्धि का धाम, पांच सौ मंत्रियों का स्वामी, सर्व कलाओं में पारंगत अभय कुमार नाम का एक पुत्र है । आर्द्रक राजा अपने पुत्र को अभयकुमार के साथ मैत्री करने का अर्थ समझकर कहने लगे “हे वत्स । तू वास्तव में कुलीन पुत्र है, जो कि परम्परागत चले आ रहे मार्ग का अनुकरण कर रहा है। अपने मनोरथ को सफल हुआ जान, राजा की आज्ञा मिलने से आर्द्र कुमार ने मंत्री को कहा कि, "आप जाओ तब मुझसे मिलकर जाना।" - जब मंत्री जाने के लिए तत्पर हुआ तब आईक राजा ने मोती वगैरह की भेंट लेकर एक आदमी के साथ मंत्री को रवाना (विदा) किया। उस समय आर्द्रकुमार ने भी अभयकुमार को अपना संदेश तथा मुक्ता, फलादि मंत्री के हाथ में दिये । मंत्री आर्द्र क राजा के आदमी सहित राजगृह आया। और श्रोणिक राजा तथा अभयकुमार को भेंट दी, और अभयकुमार को आर्द्र कुमार का संदेश कहा कि आपके साथ मित्रता करना चाहता है । सभी भेंट स्वीकार कर लेने के पश्चात् मगधपति श्रेणिक ने आर्दक राजा के मंत्री को बहुत सारी भेंट देकर विदा किया। उस समय अभयकुमार ने भी उसके साथ में एक पेटी दी जिसमें भगवान आदिनाथ की प्रतिमा थी। साथ में यह भी कहा कि, "हे भद्र। वह पेटी आर्द्रकुमार के हाथ में ही देना, और मेरा यह संदेश उसको कहना कि यह पेटी एकान्त में जाकर अकेला ही खोले और इसमें जो वस्तु है उसे किसी को दिखाये नहीं। इस प्रकार सारी बातें स्वीकार कर वह पुरुष अपने नगर को रवाना हुआ। नगर में आते ही साथ में लाई हुई भेंट अपने स्वामी को तथा आर्द्र कुमार को दे दी, साथ में अभयकुमार का संदेश एकान्त में जाकर आर्द्र कुमार को कहा।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि जैन मान्यतानुसार प्राचीन समय से ही अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की शृखला चली आ रही है। जिस राजा का सम्बन्ध एक बार दूसरे देश के राजा से हो जाता था, वह फिर परम्परागत चलता ही रहता था। मित्रता के उपलक्ष में वह एक-दूसरे को