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________________ ----(-९५८) समझा जाता था।' प्रकार तीन प्रकार के होते थे। (१) प्रांस प्राकार या मृग दुर्ग (धूलकोट), (२) इष्टका प्राकार (ऐष्टक प्राकार) और, (३) प्रस्तर प्राकर । प्राकार की ऊँचाई वप्र के विस्तार से दूनी होती थी। यह १२ धनुष चौड़ा तथा २४ धनुष ऊँचा होता था। इसके अग्रभाग में मदंग और बन्दर के आकार के कंगरे बने होते थे। इसका निर्माण मिट्टी तथा पत्थरों से होता था। ईंटों की अपेक्षा पत्थरों का प्राकार प्रशस्त एवं मजबूत माना जाता था। पद्म पुराण में लंका के प्राकार को महा प्राकार की संज्ञा दी है। महापुराण में वर्णित है कि प्राकर पर चढ़कर शत्र एवं नगर की देखभाल की जाती थी। इसी पुराण में वर्णित है कि उस समय मायामय कोठों के वर्णन का उद्धरण मिला है जो कि दुष्प्रवेश एवं दर्गम्य होते ये। उसके पास जाने के पश्चात् मनुष्य वापस नहीं लौटता था। प्राकार की ऊंचाई बहुत अधिक होती थी। वे गोपुर खरवाजों से युक्त दुनिरीक्ष्य, विस्तीर्ण एवं हिंसामय थी। नगर को घेरने के लिए प्राकार का निर्माण किया जाता था। जैनेत्तर ग्रंथ अर्थशास्त्र में उल्लिखित है कि प्राकार की नींव इतनी विशाल होती थी कि उसमें रथी-रथ पर बैठकर यातायात कर सकता था। नगर के प्राकार या परकोटे में मजबूत किवाड़ लगे रहते थे। आचार्य कौटिल्य का कहना है कि 'प्राकार" के बाहर की भूमि में शत्रु को आने १. रामायण कालीन युद्ध कला पृ० १६६. २. जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन पृ० ३२५. ३. वास्योपरि..."रत्नशिलामय: महा पु० १९/६०-६१. ४. पद्म पु० ५/१७५ ५. वही ४६/२१५ ६. पद्म पु० ५२/७-१४ ७. वही ३/३१६ ८. महा पु० ५४/३५ ६. अर्थशास्त्र अधिकरण २, अध्याय ३, पृ० ७८.
SR No.032350
Book TitleBharatiya Rajniti Jain Puran Sahitya Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhu Smitashreeji
PublisherDurgadevi Nahta Charity Trust
Publication Year1991
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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