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संस्था थी। निर्वाचन द्वारा राजा नियुक्त किया जाता था। राजपद को स्वीकार करने में उसे कई प्रतिज्ञाएँ करनी पड़ती थीं, जिसके अनुसार प्रजा का हित और उसकी समृद्धि करना राजा का सर्वश्रेष्ठ कर्त्तव्य होता था। राजा नियमों से परे नहीं था। नियम उस पर भी लागू होते थे। इस काल में राजाओं का निर्वाचन अथवा पुननिर्वाचन होता था। ऋग्वेद में राजा के चरित्र एवं गुण क्या थे, पता नहीं चलता है। अर्थात् ऋग्वेद में राज्य सम्बन्धी उल्लेख बहुत कम है। अथर्ववेद में उनकी संख्या पर्याप्त है, परन्तु उनका सम्बन्ध केवल राजा से ही है। यजुर्वेद की संहिताओं और ब्राह्मणों में राज्याभिषेक या उसके बाद किये जाने वाले यज्ञों का वर्णन कई स्थानों पर मिलता है। राज्यारोहण के समय किया जाने वाला यज्ञ "राजसूय" कहलाता था। संहिताओं और ब्राह्मणों में वर्णित तत्वों से पता चलता है कि राजपद की प्रतिष्ठा कैसी थी, राजकर्मचारी कौन थे, प्रजा से कौन-कौन से "कर" वसूल किये जाते थे। इसके अलावा विभिन्न जातियों के परस्पर सम्बन्ध, अधिकार, स्थिति का विवेचन है, जिससे राजतन्त्र पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
वैदिक और ब्राह्मण काल के पश्चात्, अब हम धर्म-सूत्रों में निहित राजनीति का वर्णन करेंगे। धर्मसूत्रों के अन्तर्गत राजनीति में पूर्व की अपेक्षा कुछ परिवर्तन हो गया था। धर्मसूत्रों में राजत्व सम्बन्धी अधिकारों का तर्कपूर्ण विवेचन है। इसके अलावा अधिकार एवं उत्तरदायित्व के सिद्धान्तों का अच्छा सामंजस्य है। एक स्थान पर राजा के अधिकार का सत्रपात इस आधार पर किया गया है कि यह व्यक्तिगत एवं समाजगत मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। ऐसा लिखने में हमारा उद्देश्य गौतम ऋषि की उक्ति की और है कि संसार के धर्म को राजा
१. यू० एन० घोषाल : हिन्दुओं के राजनैतिक सिद्धान्त, जबलपुर : स्टुडेण्ट्स स्टोर्स,
१९५० पृ० १। २. वही। / के० वी० जायसवाल, अनु० चम्पकलालभाई मेहता, हिन्दू राज्य व्यवस्था : "अहमदाबाद, हीरालाल त्रिभुनदास पारेख, गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी, १९३३, पृ० २०५।