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________________ ( १५४ ) स्वभाव में पूर्व की अपेक्षा बहुत कुछ परिवर्तन आ गया था । ' धिक्कार" दण्डनीति ऋषभदेव के समय तक चलती रही थी । क्योंकि भगवान ऋषभदेव को अन्तिम कुलकर भी स्वीकार किया गया है। जैन मान्यतानुसार ऋषभस्वामी को प्रथम राजा स्वीकार किया गया है । इससे पूर्व कोई भी राजा नहीं हुआ था । ऋषभ स्वामी ने राजपद पर आरूढ़ होने के तुरन्त पश्चात् अपराधों के निरोध हेतु चार प्रकार की afa प्रारम्भ की । साम, दाम, दण्ड और भेद । इसके साथ ही चार प्रकार की दण्ड-व्यवस्था भी बनाई । (१) परिभास : इस दण्ड- व्यवस्था के अनुसार अपराधी को आक्रोशपूर्ण शब्दों में नजरबन्द रहने का दण्ड देना था । (२) मण्डलबन्ध : - इस दण्ड- व्यवस्था के अनुसार अपराधी को सीमित क्षेत्र में रहने का आदेश दिया जाता था । (३) चारक : इस दण्ड- व्यवस्था के अनुसार अपराधी को बन्दीगृह में बन्द रखा जाता था । (४) छविच्छेद : इस दण्ड- व्यवस्था के अनुसार अपराधी के हाथ, पैर, नाक, आदि अंगों का छेदन किया जाता था । उपर्युक्त चार दण्डनीतियों के विषय में कुछ आचार्यों में मतभेद हैं । कुछ आचार्यो का मत है कि अंतिम दो नीतियाँ ( चारक बंध और छविच्छेद) भरत के समय में प्रचलित हुई थी । भरत तक सात दण्डनीतियां प्रचलित हुई थी । परन्तु आचार्य भद्रबाहु के अनुसार बंध और छविच्छेद नीति ऋषभदेव के समय में ही प्रचलित हो गई थी ।' १. जैन धर्म का मौलिक इतिहास पृ० २०.
SR No.032350
Book TitleBharatiya Rajniti Jain Puran Sahitya Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhu Smitashreeji
PublisherDurgadevi Nahta Charity Trust
Publication Year1991
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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