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(१४०) सुनकर अट्ठानबे भाइयों ने कहा कि यह प्रदेश तो पिताजी ने हमें दिये हैं इसलिए हमको आज्ञा करना आपको योग्य नहीं है । जब भरत अपनी सेवा के लिए बार-बार उनको कहने लगा, तब सब भाई मिलकर ऋषभदेव स्वामी के पास पहुंचे और प्रणाम कर कहने लगे - "हे तात ! आपने हमारे ऊपर कृपाकर हमें राज्य दिये हैं परन्तु भरत हमको बार-बार हैरान करता है, इसलिए हमको क्या करना चाहिए ? कहो।" प्रभु ने यह सुन उन्हें (अट्ठानवे भाइयों को) वैराग्यजनक वचनों से बोध दिया। जिसको श्रवण कर वे चरम शरीरी तद्भव मोक्षगामी अट्ठानवे भाई दीक्षित हो गये । यह समाचार सुन भरत चक्रवर्ती ने उनके पुत्रों को राज्य सौंप दिया ।'
भरत-बाहुबलि युद्ध :
अपने अट्ठानवे भाइयों के समान ही भरत महाराजा ने तक्षशिलाधिपति बाहबलि के पास दूत भेजा कि 'मेरी सेवा करो।२ पउमचरिय में इसका उल्लेख इस प्रकार मिलता है कि जब साठ हजार वर्ष की पुनीत जयशील विजय यात्रा कर भरत ने अयोध्या में प्रवेश किया, उस समय उनका पैनी धार का युद्ध प्रिय चक्र अयोध्या की सीमा पर ही रह गया। किसी भी तरह वह नगर के भीतर प्रवेश नहीं कर सका । चक्र को इस तरह निरुद्ध और विघ्नकारक देख कर सम्राट भरत ने क्रुद्ध होकर जय और यश से युक्त मंत्रियों तथा सामंतों से पूछा कि मुझे क्या सिद्ध करना (जीतना) शेष रहा है । यह सुन मंत्रीगण बोले महाराज आपने सोचा वह सब तो आप सिद्ध कर चुके हो। केवल एक व्यक्ति सिद्ध करने के लिए शेष रहा है और वह है आपका छोटा भाई बाहुबलि, जो कि सवा पाँच सौ धनष लम्बा, चरम शरीरी, स्वाभिमान और लक्ष्मी का निकेतन, विशाल बलशाली पोवनपुर का राजा है। यह सुनकर भरत ने तुरन्त ही मंत्री को यह संदेश देकर भेजा कि वह मेरी आज्ञा माने । और यदि किसी तरह वह इस बात पर राजी न हो तो ऐसी युक्ति करना जिससे दोनों का युद्ध
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१. आ० चूर्णी० पृ० २ ६. २. वही ३. पउम चरिय पृ० ६१.