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योगदान की प्रशंसा की है। किले का द्वार तोड़ने के लिये हाथियों का उपयोग होता था। (IV) रथ सेना :
तत्कालीन सैन्य व्यवस्था में रथ सेना चतुरंगिणी सेना का प्रमुख अंग थी। राजा तथा अन्य विशिष्ट लोग रथों में बैठते थे। रथ, छत्र, ध्वजा पताका, घण्टे, तोरण, नन्दिघोष और क्षुद्र घण्टिकाओं से सुसज्जित किया जाता था। हिमालय में पैदा होने वाले सुन्दर तिनिस काष्ट द्वारा रथ निर्मित किये जाते तथा इस पर सोने की सुन्दर चित्रकारी की जाती थी। इसके चक्के और धुरे मजबूत होते तथा चक्कों का घेरा मजबूत लोहे का बना होता था। इसमें जातवंत सदर घोड़े जोते जाते तथा सारथि रथ को हाँकता था। धनुष, बाण, तूणीर, खड्ग, शिरस्त्राण आदि अस्त्र-शस्त्रों से यह सुसज्जित रहता था। रथ अनेक प्रकार के होते थे। संग्राम रथ कटीप्रमाण फलकमय वेदिका से सज्जित होता, जबकि यानरथ पर यह वेदिका नहीं होती । कीरथ एक विशिष्ट प्रकार का रथ होता जिस पर बैठने का सौभाग्य श्रेष्ठी या वेश्या आदि को ही प्राप्त होता था। राजाओं के रथ सबसे बढ़कर होते थे, उनकी गणना रत्नों में की जाती थी। उज्जयिनी के राजा प्रद्योत के अग्निभीरु रथ पर अग्नि का कोई असर नहीं होता था। कौटिल्य ने देवरथ, पुष्परथ, संग्रमिक रथ, परियाणिक रथ, परपुराभियानिक रथ एवं वैनयिक रथ आदि का वर्णन किया है। रथ सेना के प्रधान अधिकारी को रथाधिपति कहा जाता था। (ख) १. युद्ध : कारण
प्राचीन समय में जैन मान्यतानुसार सामन्त लोग अपने साम्राज्य को विस्तृत करने के लिए युद्ध किया करते थे। क्षत्रिय राजा अवसर आने पर अपने शौर्य का प्रदर्शन करने में नहीं चूकते थे। अधिकाँश युद्ध इस
१. अर्थशास्त्र २-२. पृ० ७६. १. आ० चूर्णी पृ० १८८, बृहत्कल्प भाष्य पीठिका २१६, तथा रामायण. ३.२३.१३
आदि महाभारत ५.६४१८ आदि । ३. अर्थशास्त्र २.३५ पृ० २२८.