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पंचम अध्याय
"शासन व्यवस्था "
राज्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए तथा राज्य में शान्ति एवं सुव्यस्था स्थापित करने के लिए शासन व्यवस्था का होना अत्यन्त आवश्यक । प्राचीन समय से ही शासन व्यवस्था का सूत्रपात चला आ रहा है । जैन आगम तथा पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भगवान ऋषभदेव से पूर्ब किसी भी प्रकार की शासन व्यवस्था नहीं थी, क्योंकि उससे पूर्व न राज्य था और न ही राजा । ऋषभदेव ही प्रथम राजा हुये । ऋषभदेव स्वामी ने राज्याभिषेक के पश्चात् तुरन्त ही शासन व्यवस्था की स्थापना की । राज्य की सुव्यवस्था एवं विकास के लिए सर्वप्रथम " आरक्षक दल” की स्थापना की। जिसके अधिकारी ' उग्र" कहलाये । इसके पश्चात् राजकीय व्यवस्था में परामर्श देने के लिए एक “मंत्रिमंडल" का निर्माण किया । जिसके अधिकारी “भोग” कहे गये। मंत्रिमंडल की स्थापना के पश्चात् "परामर्श मण्डल” की स्थापना की, जो कि सम्राट के सन्निकट रहकर उन्हें समय-समय पर परामर्श ( सलाह) देते रहते । परामर्श मण्डल के सदस्यों को “राजन्य” कहा गया । इसके पश्चात् सामान्य कर्मचारियों की नियुक्ति की गई जिनको कि "क्षत्रिय" नाम से सम्बोधित किया
गया ।
इस प्रकार ऋषभस्वामी द्वारा चार प्रकार की शासन व्यवस्था स्थापित की गई।
जैन मान्यतानुसार केन्द्रीय शासन शासन व्यवस्था में परिषदों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता था । जैनागमों में पाँच प्रकार की परिषदों का उल्लेख मिलता है |
१. तिस्थोगाली पइन्नय पृ० ८५, गा० २८७, आव० नि० पृ० ५६, आ० चूर्ण० पृ० १५४.