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राजा प्रजा का सम्बन्ध :
प्राचीन ग्रंथों में राजा और प्रजा का सामंजस्य स्थापित करते हुए राजा को प्रजा का सेवक वर्णित किया है । प्रजा राजा को अपनी आय का छठांश भाग कर के रूप में देती थी, यही राजा की आय होती थी । इस प्रकार राजा को भृत्य की भाँति प्रजा की सेवा करने की व्यवस्था थी ।' जैन पुराणों में वर्णित है कि प्रजा का राजा का अनुकरण करती थी । यदि राजा धर्मात्मा होता था तो प्रजा भी धर्मात्मा होती थी और राजा के अधर्मात्मा होने पर प्रजा भी अधर्मात्मा होती थी अर्थात् जैसा राजा वैसी प्रजा की कहावत चरितार्थ होती है । " जैनेत्तर ग्रन्थों में भी उपर्युक्त मत का प्रतिपादन होता है कि प्रजा के सुख में ही राजा का सुख था और प्रजा के हित में राजा का हित था । अतः राजा को अपना हित न देखकर प्रजा का हित देखने को कहा गया है । "
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महापुराण में उल्लिखित है कि प्रजा राजा को ब्रह्मा मानकर समृद्धि प्राप्त करती थी । जैनेंत्तर पुराण में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि राजा निःस्वार्थ भाव से प्रजा की सुख-समृद्धि के लिए सचेष्ट रहता था । अतः प्रजा भी राजा को देवतुल्य मानती थी ।
महापुराण में राजा द्वारा प्रजा की रक्षार्थ विभिन्न उपायों का निरूपण करते हुए वर्णित है कि राजा को अपनी प्रजा का पालन उस प्रकार करना चाहिए जिस प्रकार आलस्य रहित होकर ग्वाला बड़े यत्न
१. बौधायनधर्मसूत्र १ / १०-६, शुक्र ४/२०/३०.
२. यथा राजा तथा प्रजा । पद्म पु० १०६ / १५६.
अनाचारेस्थिते तस्मिन् लोकस्तत्र प्रवर्तते । पद्म पु० ५३ / ५, पाण्डव पु० १७/ २५-२६०.
धर्मशील महीपाले यान्ति तच्छीलता प्रजाः ।
अताच्छील्यमतच्छीले यथा राजा तथा प्रजा । महा पु० ४१/६७.
३. प्रजा सुखे राज्ञः प्रजानां च हिते हितम् ।
नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम् । अर्थशास्त्र । १ / १९५६, महाभारत शान्तिपर्व ६६ / ७२-७३.
४. प्रजाः प्रतापतिं मत्वा तमैधन्तसुमेधसम् । महा पु० ५४ / ११७.