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तथा दण्डनीति-शास्त्र में निपुण और देवी तथा मानुषी आपत्तियों के प्रतिकार में समर्थ होना चाहिए ।'
प्राचीन भारतीय शासन पद्धति में धर्म विभाग या धार्मिक विषय पुरोहितों के अधीन था । वह राजधर्म और नीति का संरक्षक था । इस पद के अधिकारियों को मौर्य काल में “धर्ममहामात्र ” सातवाहन काल में “श्रमण महामात्र”, गुप्तकाल में “विनयस्थितिस्थापक" और राष्ट्रकूट काल में “धर्मांकुश" कहा जाता था ।
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पुरोहित लोग राज्य में उपद्रव तथा राजा की व्याधियों की शान्ति के लिए यज्ञ आदि का अनुष्ठान करते थे । कभी-कभी पुरोहितों को राज्यहित के लिए दूत कार्य भी करना पड़ता था । निशीथचूर्णी में पुरोहितों को धार्मिक कृत्य ( यज्ञादि शान्तिकर्म ) करने वाला बताया गया है । विपाकसूत्र में जितशत्रु राजा के महेश्वरदत्त नामक पुरोहित द्वारा, राज्योपद्रव शान्त करने, राज्य और बल का विस्तार कराने तथा युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए अष्टमी और चातुर्दशी आदि तिथियों में नवजात शिशुओं के पिण्ड से शान्ति होम किये जाने का उल्लेख है । '
धीरे-धीरे पुरोहितों का महत्त्व कम होने लगा और २०० ई० के बाद से तो उसे मंत्रिपरिषद का सदस्य भी नहीं बनाया जाने लगा । " हरिभद्रसूरि के काल तक आते-आते पुरोहितों का कार्य मुख्यतया धार्मिक कृत्य सम्पन्न करना ही रह गया था । उसे राजगुरु कहा जाने लगा । मंत्रिपरिषद का सदस्य न होने पर भी उसे राजदरबार में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था ।
१. अर्थशास्त्र १ / ६, पृ० २३
२. प्राचीन भारतीय शासन पद्धति पृ० १५२
३. वही पृ० १५२
४. समराइच्चकहा एक सांस्कृतिक अध्ययन पु० ६२.
५. नि० चू० २ पृ० २६७
६. विपाकसूत्र अ० ५
७. समराइच्चकहा एक सांस्कृतिक अध्ययन पु० ६२