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(८८) युवराज और उसका उत्तराधिकारी :--
प्रशासन को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए राज्य में युवराज का होना आवश्यक बताया गया है। अभिषेक से पूर्व की अवस्था को युवराज कहा गया है। जैन पुराणों के अनुसार राजा का पद साधारणतया वंश परम्परागत होता था। ऐसा ही उल्लेख रामायण में मिलता है। राजा की मृत्यु पश्चात् राजसिंहासन का अधिकारी राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही होता था। यदि किसी राजपुत्र के सौतेला भाई होता तो उनमें राज्य के कारण ईर्ष्या-द्वेष होने लगता और पिता की मृत्यु पश्चात् यह द्वेष भ्रातृघातक युद्धों में भी परिणत हो जाता था। यदि इस प्रकार की कोई घटना नहीं घटती तो राजपुत्र ही राजपद पर आसीन होता और उसके कनिष्ठ भ्राता को युवराजपद प्राप्त होता था।
जैन आगमों में सापेक्ष और निरपेक्ष दो प्रकार के राजाओं का उल्लेख आता है। सापेक्ष उसको कहते हैं जिसमें राजा अपने जीवन-काल में ही अपने ज्येष्ठ पुत्र को युवराज-पद दे देता था। निरपेक्ष राजा के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि राजा की मृत्यु के पश्चात् ही पुत्र को राजा बनाया जाता था।'
जैन मान्यतानुसार राजा के एक से अधिक पुत्र होने पर राजपद के लिए उनकी परीक्षा ली जाती थी, और जो राजकुमार परीक्षा में उर्तीण हो जाता उसी को युवराज-पद पर अभिषिक्त किया जाता था। कभी-कभी ऐसा भी होता था कि राजा की मृत्यु पश्चात् जिस राजकुमार को राजपद देने का निश्चय किया जाता और वह दीक्षा ग्रहण कर लेता ऐसी परिस्थिति में उसके कनिष्ठ भ्राता को राजगद्दी पर बैठाया जाता था। कभी-कभी दीक्षित राजकुमार संयम पालन करने में अपने को असमर्थ समझ वापिस लौट आते थे । ऐसी परिस्थिति में उसका भाई उसे राजसिंहासन पर बिठा देता और स्वयं उसका स्थान ग्रहण कर लेता था । उदाहरणस्वरूप साकेत नगरी में कुडरीक नाम और पुंडरीक नाम के दो राजकुमार रहते थे। कुडरीक ने श्रमण दीक्षा ग्रहण कर ली। पुडरीक राज्य-सिंहासन
१. व्यवहार भाष्य : टीका माल्यगिरि, भावनगर, आत्मानन्द जैन सभा, १९२६,
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