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Dr. 19-07-2018
.कीर्ति-स्मति
प्रति . परिशिष्ट-c
प्रेषक :- प्र. द्वारा, . पू. विनोबाजी, द्वारा, पंजाब सर्वोदय मंडल,आचार्य विनोबाजी नादानन्द बापूरावजी, सितार मास्टर
___ श्री हनुमानमंदिर, नारायण गुड़ा, करनाल (पंजाब)
ब) को पत्र एवं पत्रोत्तर हैदराबाद-१ (आंध्र), ६-१२-५९ परम पूज्य बाबा । १३अनेकशः प्रणाम ।।
- मुझे बड़ा दुःख है कि आपके २३.८.५१ के पत्र का मैं आज प्रत्युत्तर दे पा रहा हूँ। मुख्य कारण | मेरे छोटे भाई की बीमारी और साथ साथ उसकी एक महीना पूर्व ५.११.५९ को असमय ही "करुण"
मृत्यु ... ! आप से प्राप्त दृष्टि दान के कारण इन दिनों शांत समभावी और स्वस्थ रहने का प्रयत्न तो किया है, परन्तु दिवंगत अनुज का आद्यान्त करुण और परोपकारपूर्ण जीवन एक ऐसी वेदना । दे रहा है जो व्यक्त करने में असमर्थ हूँ। यहाँ कुछ लिखने का उद्देश आप से अगर समाधान पा . | सकूँ तो कृतकृत्य बनूँ, यह है । और यह समाधान भी मेरे अपने स्वार्थ के लिए नहीं, अनुज के दुःख की वेदना को विश्ववेदना में परिणत करने का मार्ग प्राप्त करने के लिए, आपका अमूल्य समय खर्च करवा कर माँग रहा हूँ। अगर योग्यता हो मेरी तो दो चार पंक्तियाँ लिखें । इच्छा होते हुए भी प्रत्यक्ष आप के पास आने में असमर्थ हूँ और अब तो यदि मेरा प्रयास प्रामाणिक रहा और इश्वरेच्छा हुई तो "एकाध हफ्ते के लिए" नहीं, सदा के लिए आपके चरणों में आना है-निकट से या दूर से।
यहाँ थोड़े में ही मृत भाई के विषय में लिखकर मेरी एवं मेरी वृध्ध माता की समाधान-प्राप्ति की अभीप्सा कर, रुकूँगा।
'दुःख में जो अनुद्विग्न' वाला गीतावचन सदा ही स्मृति में रहा है और भ्रातृप्रेम की आसक्ति से भी भिन्न रहने की कोशिष की है-कर्त्तव्य न भूलते हुए । पर यहाँ एक ऐसे अनुज का जीवन है जो वेदना से मुक्त होने नहीं देता । उसका अल्प जीवन भी सारा एक दूःखपूर्ण कहानी है-कम्युनिस्ट
और गरीबों के हमदर्द युवान की, विज्ञान के शोधक एवं साथसाथ शील-साधना के उपासक की, व्यापार द्वारा अपने परिश्रम की कमाई से दुःखियों का दुःख दूर करने का यत्न करनेवाले एक परोपकारी जीवात्मा की।
वह प्रथम कम्युनिस्ट बना, फिर स्वतंत्र रूप से परोपकार कार्य करने लगा, फिर पारिवारिक प्रत्याघातों के कारण अकेला कलकत्ता चला जाकर विज्ञान के प्रयोगों, व्यापार, शील-साधना और दुःखियों की सेवा के द्वारा अपनी साधना करता रहा-पर उसे आरम्भ से आज तक इतने कष्ट सहने पड़े हैं कि उसका स्मरण करते ही व्यथित हो जाते हैं। हमारे कुटुम्बीजनों के विचार-प्रहार, मित्रों और धनिकों के कष्ट, पुलिस की मार - इन सब के बीच उसका जीवन भयंकर प्रत्याघातों और दुःखों को सहता चला और फिर भी यह छोटा कुमार अचल रहा ... इतना भी पर्याप्त न था, न जाने भगवान की क्या इच्छा थी, उसका अन्त भी बड़ा करूण ही कहा जाय ऐसा बना । इन उपरोक्त प्रत्याघातों एवं कष्टों के कारण ५ महीना पूर्व वह कलकत्ता में बीमार पड़ा - टाइफाइड से । मैं जल्दी वहाँ गया और दो महीने की प्राकृतिक एवं आयुर्वेदिक चिकित्सा तथा नित्य 'मानस' पाठ, रामनाम
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