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________________ 12 Dt. 19-07-2018 47 • कीर्ति स्मृति • एवं प्रभुप्रार्थना से वह मरते मरते बचा। बाद उसे कलकत्ता से हैदराबाद हवाई जहाज से भेजना पड़ा (दुर्बल शरीर के कारण) और मैं गाड़ी से यहाँ लौटा। तीसरे दिन यहाँ पहुंचा और पहुँचते ही देखा तो अज्ञान और पूर्वग्रह वश उसके लिए मेरे द्वारा कलकत्ता में की गई प्राकृतिक चिकित्सा के प्रति पूर्वग्रह और अज्ञान की दृष्टि के कारण बीमारी से उठे हुए भाई को "सब कुछ" अपथ्ययुक्त खानपान और दूसरी ओर से एलोपॅथी दवाईयाँ और इंजेक्शन देना शुरु हो गया था । मेरे प्रेमपूर्ण विरोध के होते हुए भी आप्तजनों (!) ने मेरी सुनी नहीं, रोकर प्रभुप्रार्थना करने के सिवा फिर मेरी कोई शक्ति शेष नहीं थी। इसी बीच श्री गुरुदयाल मल्लिकजी भी हमारे घर पर पाँच दिन के लिए आए और यह स्थिति देख बड़े दुःखी हुए एलोपॅथिक दवाईयाँ बढ़ती गई और तबियत बिगड़ती गई। आखिर अंतिम १२ दिन तो सब से झगड़ा कर और रोगी भाई की भी दवा न लेने की प्रबल इच्छा के कारण मैंने यहाँ प्राकृतिक चिकित्सालय में डो. वेंकटराव के पास प्रा. चि. शुरु करवाई । इससे रोगी को शांति तो हुई, पर कैंस काफी आगे बढ़ चुका था परंतु इस दवा मुक्ति से उसे और हमें शांति मिलती थी । प्रा.चि. के उपरान्त रोज मानस पाठ, भजन गान, धर्म-चर्चा आदि होता रहता था। इस बीच पू. बालकोवा के पत्र भी आते रहते थे पर यहाँ भी हमारे अज्ञानी आप्त जनों ने चैन लेने नहीं दिया, एक ऐसी परिस्थिति खड़ी कर उसे फिर एलोपॅथिक अस्पताल पर ले गये और रोगी को बड़ी पीड़ा पहुँचाने वाले उपचार दिए गए। फिर अन्त निकट आता दिखाई दिया - मैं ने ज़ोर से विरोध किया : "अब इसे कम से कम मरने तो शांति से दें ... !" और तब सब उपचार बंध कर, मृत्यु के दो घंटे पूर्व उसे घर पर लाया गया और हम सब सामूहिक रूप से नवकार मंत्र नाम-जाप और भजनगान करते रहे, 'मानस' उसकी छाती पर ही था, इस वातावरण के बीच (गुरुवार, ज्ञानपंचमी के दिन ५-११-५९) दोपहर के २-१५ बजे उसकी आत्मा ने देहत्याग किया। वह स्वयं भगवान् का नामोच्चारण नहीं कर सका, क्योंकि अंतिम २४ घंटे से वह एक निद्रा जैसी बेहोशी की हालत में था । पर होश में था तब सतत ही प्रार्थना और भजनगान करने का आग्रह कर, मुझ से सुना करता था और बारबार भजन सुनकर रो पड़ता था । उसके सारे जीवन की बात अगर लिखने बैठूं तो World Classics में शायद स्थान पा सके ऐसी एक करुणान्त कथा सृजित होगी - अगर भगवान की कृपा एवं आप सब के आशीर्वाद रहे तो कभी यह काम हो जाएंगा - अनेक ऐसे परोपकारी दुःखी जीवों के हेतू । यहाँ आप से थोड़ा कुछ पूछकर पत्र समाप्त कर रहा हूँ। ( १ ) ऐसे जीवात्मा का कार्य दूसरे जन्म में फिर चालु रहता होगा ऐसा समझता हूँ । पर इस कार्य के लिए तो फिर मनुष्य जीवन ही चाहिए न ? तो उसे मनुष्य जीवन मिल सकता है ? अगर हां, तो उसका यह जीवन इतनी शीघ्र समाप्त क्यों हुआ ? क्या उसके जीवन की समाप्ति में मात्र "नियति" ही कारणभूत है, या ऊपर लिखे अनुसार हम सब आप्तजनों की लापरवाही भी ? (२) उसका अधूरा कार्य हम शुरु करें तो उस आत्मा को शांति मिल सकती है ? गरीबों की सेवा की एवं शीलसाधना की उसे उत्कट इच्छा रहती थी। मेरी तो अल्प समझ है, उसे इस प्रकार हम सब के कार्य से ही सच्ची शांति मिलेगी । (३) उसकी वेदना मुझे तो बारबार विश्ववेदना की ओर अभिमुख कर रही है - अब पूर्ण रूप से विश्व की वेदना में अपने को घुला कर करूणा कार्य में लग जाना चाहता हूँ। M.A. की परीक्षा निकट ही आ रही है पर अब इसमें रुचि नहीं रही, फिर साथ साथ प्रश्न भी होता है कि परीक्षा (47)
SR No.032327
Book TitleKarunatma Krantikar Kirti Kumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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