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Dt. 19-07-2018 - 14
धर्मार्थ भोजनालय में भोजन करने जाने के उपर्युक्त बदले के घावों से) मेरी परिस्थिति कैसी बनी होगी ?"
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यह था उसके कलकत्ता के कार्य का प्रथम कठोर अनुभव, जैसा कि उसने अपनी करुण जीवनकथा को उजागर करनेवाले कुछ मुद्दों भरे तीन मूल्यवान और व्यथापूर्ण ऐसे मार्च १९५९ के मुझ पर लिखे हुए ३ पत्रों में, स्वयं वर्णित किया है। ये पत्र उसने अपने करुण असमय देहान्त के आठ माह पूर्व जन्मभूमि अमरेली निकट के ननिहाल स्थान धारी से लिखे थे । वहाँ उसे कलकत्ता से अपनी इच्छा के विरुद्ध हमारी पू. माताजी ने बुलाया था - अपनी मातृसहज चिंता और राग-भावना से जबर्दस्ती पूर्वक कहीं उसका सगाई सम्बन्ध-संसार सम्बन्ध जोड़ने हेतु ! वास्तव में दृढ़संकल्प कीर्ति और मैं हम दोनों विवाह करना नहीं चाहते थे उस समय मुझे अपने अनुस्नातक अध्ययन तक संकल्प-बद्ध जानकर, माँ स्वाभाविक रूप से बेचारे कीर्ति के पीछे लगी थी मुझ से छोटा होते हुए भी और अपने क्रान्ति कार्य सिद्धि हेतु अविवाहित रहने के लिए सुदृढ़ होते हुए भी !! वैवाहिक जीवन अवश्य ही उसके क्रान्ति कार्य में बाधारूप बनेगा यह स्पष्ट जानते हुए भी माता के प्रति भक्ति के कारण उसकी आज्ञा उठाकर, कष्टों के बीच से भी वह उसके बुलावे से उसके पास ननिहाल पहुंचा था। मेरी उसके प्रति सदा सहानुभूति होने से वह अपनी अंतर्व्यथाएँ खुले दिल से मुझे लिख दिया करता था मेरे खिलाफ भी कहीं कहीं, आदरपूर्वक, अंगुलि उठाते हुए। वहाँ अपने गंभीरतम दोराहे पर आ खड़े रहने के कारण उसने अपने जीवन की बहुत कुछ वेदनाएँ प्रथम बार इन तीन पत्रों में व्यक्त की थीं। इन सभी में उसका दर्दभरा जीता जागता जीवन-अनुभव था, गहरा दर्द था, मातृभक्ति फिर भी अपनी संकल्प - दृढ़ता थी, जीवन के गंभीर प्रश्नों का गहन चिंतन था, समाज और देश की समस्याओं का तादृश चित्रण था और सबसे ऊपर था उसका, एक सजग सच्चे जीवन का आदर्श और क्रान्त दर्शन अपने संघर्षमय जीवन और चिंतन को वाचा देनेवाले ये तीनों पत्र, मुझ पर लिखे हुए होते हुए भी और मुझ पर भी प्रश्न उठाते हुए भी, सभी के लिये पठनीय हैं, चिंतनीय हैं, अधिकांश में अनुकरणीय हैं। वे सारे वैसे के वैसे अन्यत्र योग्य स्थान पर दिये गये हैं ।
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० कीर्ति-स्मृति
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इन पत्रों में इंगित एवं सम्बन्धित बहुत सी बातें और घटनाएँ में विस्तार से १९५८ के अपने अल्पकालीन शांतिनिकेतन विद्या-वास से भी अधिक, १९५९ के उसके कलकत्ता में प्राकृतिक चिकित्सालय में गंभीर रूप से शय्यावश रहने के काल में सेवा में साथ रहने पर जान सका । उस के कई निकटतम मित्रों एवं उसके 'पूजक' उससे 'उपकार प्राप्त' दीनजनों से भी ऐसा बहुतकुछ जाना जो कि चौंकानेवाला, रोंगटे खड़े कर देनेवाला और एक नये क्रान्तिकार को तादृश दर्शानेवाला था। इन सब में भ्रष्ट, भ्रष्टाचारी बन चुके भारत का पद पद पर कीर्ति द्वारा किये गये विरोध, विद्रोह एवं संघर्ष का तथा प्रथम कुछ हिंसा युक्त और बाद में संपूर्ण अहिंसक क्रान्ति का दर्शन है, आर्यदर्शन
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