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________________ Dt. 19-07-2018 - 13 के पास ले जाने का एवं सुचारु रूप से सारी व्यवस्था करवाने का विचार किया । इस सारी प्रक्रिया में थोड़ा समय लग गया और इसी बीच कलकत्ता में अतिथि-वत्सल मनुभाई के घर रहकर कीर्ति ने भी अपनी सेवा भावना एवं निस्पृह साधक-वृत्ति से उनका और उनके सारे परिवार का दिल जीत लिया। मनुभाई के अति आग्रह जताने पर भी अपने नये क्रान्ति कार्य धनार्जन व्यवसाय कार्य हेतु उनसे उसने कोई धन नहीं लिया । कष्ट होते हुए भी वह अपनी "जात मेहनत" से कलकत्ते में पैर जमाने के प्राथमिक कार्य में प्रामाणिकता और परिश्रमपूर्वक जुटा रहा । कीर्ति-स्मृति अनेक कार्यों और कारणों से हैद्राबाद से तुरन्त कलकत्ता में जा तो नहीं पाया, परंतु कलकत्ते से मनुभाई एवं कीर्ति के सारे समाचार पाता रहा। उनका मार्गदर्शन करता रहा । कीर्ति ने कलकत्ता में अपना दीर्घ चिंतित क्रान्तिकार्य व्यवस्थित रूप से आरम्भ करने से पूर्व प्रामाणिकता से धन कमाकर और परिवार को उसके द्वारा सहायता पहुँचाकर अपनी धनार्जन क्षमता को सिद्ध करना चाहा था प्रारम्भावस्था के अपार कष्ट तो उसे उठाने पड़े, परंतु परिश्रम, प्रामाणिकता एवं नीतिपूर्वक धन कमाया जा सकता है यह वह बताना चाहता था । अपने उन दिनों के प्राथमिक भारी कष्टों को उसने मुझ पर लिखे हुए बाद के एक पत्र में इस प्रकार वर्णित किया है : "मैं मद्रास से कलकत्ता आया । "कलकत्ता में मैं बेकार था प्रथम घर घर जाकर एक एक पौंड चाय बेचना आरम्भ किया। उस समय एक बेकार मित्र रेड्डी भी वहाँ आने के लिये तैयार हुआ मैंने उसे आधी में से आधी रोटी खाने बुलाया । खर्च के दो छोर मिलाने इलैक्ट्रिक फिटिंग शुरु किया । आपके पास से २०००/- ( दो हज़ार रुपये मंगवाये, जिसमें से मैंने और रेडी ने इन्स्टालमेंन्ट पर गाड़ी खरीदकर मिटरवाली टैक्सी चलाने का तय किया । पू. मनुभाई इत्यादि ने आपको वह बतलाया और आपको वह पसन्द नहीं आया, इसलिये वे रुपये मैंने मनुभाई से उठाये नहीं। रेडी फेरी करने लगा तथा मैं चाय बेचने और फिटिंग करने लगा। उस बीच बम्बई में करन्ट चेन्ज हो रहा था। मुझे पंखे लाने का विचार आया परंतु वैसा नहीं किया। रेडी नौकरी पर लग गया। मैं भी नौकरी पर लग गया। परंतु वहाँ मेरी मेहनत को धर्मादा (सखावत) के तराजू में तोला गया । जैन मुनियों के कहने पर बनाया गया धर्मादा का भोजनालय मुझे बतलाया गया । जब फिटिंग करता था तब मुझे चार दिन की मज़दूरी केवल चार आना मिली थी, वह घाव अभी दिलमें से जा ही नहीं रहा था, क्योंकि वह थी मेरे पसीने की कीमत । और उसमें फिर यह नया घाव लगा ! "दूसरे दिन से मैंने जिनालय जाना छोड़ दिया, रेडी के साथ बैठकर क्रान्ति के विचार किये। मद्रास से आया था क्रान्ति के विचार छोड़कर मेरी कीमत बतलाने, पैसे कमाकर परिवार की ओर का मेरा फर्ज़ पूरा करने ! और चाहता था कि पहली बार घर पर मेरी कमाई के पैसे भेजूंगा.....!! पर आप ही सोचिये, (मेरे परिश्रम-पसीने के पैसे मुझे नहीं चुकाने के और बदले में केवल - (13) •
SR No.032327
Book TitleKarunatma Krantikar Kirti Kumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherVardhaman Bharati International Foundation
Publication Year
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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