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पूजना अच्छा नहीं है। परिकर युक्त मूर्ति अरिहंत की और बिना परिकर की मूर्ति सिद्ध की कही जाती है। सिद्ध की मूर्ति घर में पूजने योग्य गिनी नहीं जाती इस लिये वह मंदिर में पूजनी चाहिये।
श्री सकलचंद्र उपाध्याय कृत 'प्रतिष्ठाकल्प' में लिखा गया है कि - मल्लिनाथ, नेमनाथ और महावीर स्वामी इन तीन तीर्थंकरों की मूर्ति श्रावक को घर में पूजनी नहीं चाहिये। परंतु इक्कीस तीर्थंकरों की मूर्ति घर में शांतिकारक और पूजनीय तथा वंदनीय है। ये तीन तीर्थंकर वैराग्यकारक होने से उनकी मूर्ति देरासर - जिनमंदिर में स्थापित करना शुभकारक है, परंतु 'घर देरासर में स्थापित करनाशुभकारक नहीं है।
घरदेरासर में एक अंगुल से 11 अंगुल तक की ऊंची मूर्ति पूजने योग्य है और 11अंगुल से अधिक ऊंची हो वह मंदिर में पूजा करने योग्य है ऐसा पूर्वाचार्य कहते हैं। प्रतिमा का शुभाशुभ लक्षण
मूर्ति के नाखून, अंगुली, भुजा नाक और पैर - इतने अंगों में से कोई अंग खंडित बनी हुई मूर्ति हो तो वह अनुक्रम से शत्रु का भय, देश का विनाश, बंधनकारक, कुल का नाशऔर द्रव्य का क्षय करनेवाली है।
पादपीठ, चिह्न और परिकर के भंगवाली मूर्ति हो तो वह अनुक्रम से स्वजन, वाहन और सेवक की हानिकारक जानें। और छत्र, श्रीवत्स और खंडित कानवाली मूर्ति हो तो वह अनुक्रम से लक्ष्मी सुख और बांधवों की हानिकारक जानें।
जोमूर्ति वक्र नाकवाली हो वह बहु दुःखदाता, छोटे अवयव वाली हो तो क्षयकर्ता, खराब आँखवाली हो वह आँख का नाश करनेवाली और संकरे मुखवाली हो वह भोग की हानिकारक जानें।
जो प्रतिमा कमरहीन हो वह आचार्य का नाश करे, हीन जंघावाली हो वह पुत्र, मित्र और बंधु का नाश करे, हीन आसनवाली हो तो रिद्धि का नाश करे और हीन हाथ पैरवाली हो तोधनका क्षय करे।
जो प्रतिमा ऊंचे मुखवाली हो वह धन का नाश करे, चक्र गरदनवाली हो वह स्वदेश का भंग करे, नीचा मुखवाली हो वह चिन्ता उत्पन्न करावे तथा ऊंची नीची हो वह विदेशगमन करावे।
जो मूर्ति विषम आसनवाली हो वह व्याधिकारक समझें तथा अन्याय से उत्पन्न किये हुए द्रव्य से बनाई गई हो वह मूर्ति दुष्काल आदि करनेवाली जानें। और थोड़े अथवा अधिक अंगवाली हो वह स्वपक्ष (प्रतिष्ठा करने वाले को) तथा परपक्ष (पूजा करनेवाले) को कष्ट देनेवाली जानें।
जैन वास्तुसार
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