________________
मूल गुजराती आवृत्ति का
प्रारम्भिक आशीर्वचन संपूर्ण विश्व आकारमय है। साकार है। समस्त वस्तुएँ आकारमय हैं। आकार दृश्यमान जगत का दर्शन कराता है। दृश्यमान जगत के पीछे भी एक निश्चित विधा रही होती है।
यह विधा वस्तु के स्वरुप एवं विरुप का ज्ञान कराती है। विधाओं का विधान करने वाली एक शैली है, एक शास्त्र है।
विविध विधाएँ स्थित हैं विश्व के प्रांगण में! इस दृश्यमान साकार वस्तुविधा का विज्ञान समझानेवाला है शिल्पशास्त्र, जिसके मार्गदर्शन से निर्मित होनेवाली प्रत्येक भव्य इमारत ऐतिहासिक स्वरुप धारण करती है।
ये इमारतें जिनालय, देवालय, गृहस्थालय, विद्यालय, औषधालय, सचिवालय, मुख्यालय आदि विविध नामों से जानी जाती हैं।
इन तमाम इमारतों में से जिनालय, देवालय तथा गृहनिर्माण के कार्य में पर्याप्त सावधानी रखना आवश्यक होता है। आय, नक्षत्र, गण, भूमिपरीक्षा तथा दिशादर्शन का संपूर्ण ध्यान रखना अनिवार्य होता है।
अगर इन बातों का उचित ध्यान रखा न जाय तो निर्माता अथवा शिल्पी के लिए दोषकारक बनता है। इसीलिए शिल्पशास्त्र भी भारतीय विधाओं की एक अनुपम देन है।
नाप-तोल के साथ जब शिल्पसम्मत उन भव्य भवनों का निर्माण होता है तब वे भवन हजारों वर्षों तक उन्नत खड़े रहकर असंख्य जीवों के लिए प्रेरणादायक बने रहते हैं। उन्हें प्रेरणा देते रहते हैं।
कई बार शिल्प के नियमों का उल्लंघन हो जाने के कारण लाखों रुपये खर्च करके निर्मित किये गये भव्य भवन उदास खड़े दिखाई देते हैं। और इसके विपरीत उन नियमों के संपूर्ण पालन के कारण वर्षों तक जीवंत प्रेरणा बन कर उनकी स्मृति दिला जाते हैं।
सिद्धाचल के दिव्य जिनालय, आबु की अद्भुत कलाकृतियाँ, राणकपुर तथा भद्रेश्वर के जिन भवन, कुंभारियाजी तथा स्वर्णगिरि के गगनचुंबी मनोहर प्रासाद शिल्प कला की जीतीजागती तस्वीरें हैं।
शिल्प जगत में वर्तमान समय में "मांडणी राणकपुर की, कोरणी आबु की" . कहावत अत्यंत प्रसिद्ध है। शिल्पकार के मनोभाव जब साकार रुप धारण करते हैं तब 'शिल्प की दुनिया कितनी अनुपम है!' इसका अनुभव होता है।
भवन निर्माण की प्रक्रिया को समझानेवाले शिल्प से संबंधित अनेक ग्रंथ विश्व में विद्यमान हैं जिनमें ठक्कुर फेरुकृत प्रस्तुत वास्तुसार ग्रंथ सर्वजन समाहित मौलिक
जैन वास्तुसार