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चाहिए परंतु दूसरे छः भागों में कभी अच्छा मुहूर्त देख कर किया जा सकता है । छः से पन्द्रह दिन दूसरे भाग में, सोलह से तीस दिन तीसरे भाग में खात आदि कार्य न करना चाहिए। तुला राशि के तीस दिन चौथे भाग में, वृश्चिक राशि के सूर्य में प्रथम पन्द्रह दिन पाँचवे भाग में, सोलह से पचीस दिन छठे भाग में और छब्बीस से तीस दिन सातवें भाग में खात आदि कार्य न करना चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक दिशा में प्रत्येक भाग की दिन संख्या छोड़ देनी चाहिए।
वत्सफल
वत्स सम्मुख हो तो आयुष्य का नाशकारक और पीछे हो तो धन का नाशकारक होता है। दाहिनी या बांयी ओर अगर वत्स हो तो सुखकारक समझना चाहिए। प्रथम खात के समय शेषनागच्रक (राहु चक्र) देखा जाता है । विश्वकर्मा ने बताया है कि
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प्रथम ईशान कोण से राहु चलता है। * सृष्टिमार्ग को छोड़कर विपरित विदिशा में शेषनाग का मुख, नाभि तथा पूंछ रहते हैं अर्थात् ईशान कोण में मुख वायव्य कोण में नाभि (पेट) तथा नैऋत्य कोण में पूंछ रहते हैं। अतः इन तीनों कोणों को छोड़कर चौथा अग्नि कोण, जो कि खाली रहता हैं, उसमें प्रथम खात करना चाहिये । मुख, पेट या पूँछ पर खात किया जाये तो हानिकारक होता हैं ।
* " राजवल्लभ" में अलग ढंग से बताया गया है.
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सूर्य, कन्या, तुला और वृश्चिक इन तीन राशियों में हो तब शेषनाग का मुख पूर्व दिशा में रहता है । फिर सृष्टिक्रम से सूर्य, धन, मकर और कुंभ इन तीन राशियों में हो तब दक्षिण में; मीन, मेष और वृषभ इन तीन राशियों में हो तब पश्चिम में और मिथुन, कर्क तथा सिंह इन तीन राशियों में हो तब मुख उत्तर में रहता है ।
शेषनाग का मुख पूर्व दिशा में हो तब वायव्य कोण में खात मुहूर्त करना चाहिए। दक्षिण में मुख हो तब ईशान कोण में, पश्चिम में मुख हो तब अग्नि कोण में और उत्तर में मुख हो तब नेऋत्य कोण में खात करना चाहिये ।
" दैवज्ञवल्लभ" में कहा हैं -
खात मुहूर्त्त मस्तक पर करने से माता-पिता का विनाश होता है, मध्य भाग (नाभि पर करने से अनेक प्रकार के भय एवं रोग होते हैं, पूँछ के भाग में करने से स्त्री, सौभाग्य एवं गौत्र की हानि होती है । खाली स्थान पर खात करने से, स्त्री, पुत्ररत्न, धान्य और धन की प्राप्ति होती है ।
जन-जन का
वास्तुसार
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