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निरन्ध । अन्धा अंधे ठेलिया दून्यू कूप पडन्त । -जिसका गुरु अंधा है वह शिष्य भी उससे अधिक अंधा होगा। जब एक अंधा दूसरे अंधे को ठेल-ठेल कर आगे बढ़ाता हैं, तो दोनों एक साथ कुएँ में गिरते हैं।
सच्चे गुरु का लक्षण बताते हुए कबीर कहते हैं-बलिहारी गुरु आपणी द्यौ हाड़ी के बार । लोचन अनंत उघाडिया अनंत दिखावण हार ।-गुरु आप धन्य हैं । आप तो स्वर्गीय अनन्त सत्य का दर्शन हर क्षण करते रहते हैं । आपने मेरे भीतर अनन्त नयन खोल दिये जिससे मैं अनन्त को देख सकें ।अनन्त लोचन ही अनन्त का दर्शन करा सकते हैं । जो नेत्र जगत् के स्वार्थों की साधना के लिये केवल कुछ ही लोगों तक सीमित रह जाते हैं, वे अनन्त को कैसे देख पायेंगे । जब नयनों की सीमा अनन्त बन जाती है तभी अनन्त सत्य परमात्मा का दर्शन होता है । परमात्मा की प्राप्ति नहीं उसका दर्शन ही होता है । प्राप्त तो वह हर क्षण में रहता है; पर उस प्राप्त को अज्ञान देखने नहीं देता । ठीक उसी तरह जिस तरह कोई वस्तु हमारे हाथ में ही रहती है, पर हम उसे ढूंढते रहते हैं । कबीर ने कहा है-तेरा साई तुज्झ में ज्यों पुहुपन में बास । कस्तूरी के मिरग ज्यूँ इत उत सूंघत घास । तेरा स्वामी तो तेरे ही भीतर है जैसे फूल की सुगन्ध फूल में समाई रहती है । कस्तूरी की सुगन्ध मृग के भीतर ही रहती है, पर वह उसे पाने के लिये इधर - उधर घास सूंघता रहता है । प्रत्येक परमाणु में शक्ति बनकर बैठा हुआ