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परमात्मा प्रति पल सब को प्राप्त है; पर उसको देखने की शक्ति प्राप्त करनी पड़ती है ।
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अनन्त परमात्मा तक पहुँचाने वाली यात्रा भी अनन्त ही रहती है । उस यात्रा के पथ पर यदि सद्गुरु मिल गया तो यात्री धन्य बन जाता है । दक्षिणापथ ही क्यों ? वह तो सब दिशाओं में है । इसी लिये दक्षिण में भी । दक्षिण में भी धन्य लोग हैं, पूर्व, पश्चिम और उत्तर में भी एक से एक धन्य । हाँ, उनको खोजने की आवश्यकता होती है । साधक का भाग्य अच्छा रहता है तो उसे सिद्ध गुरु प्राप्त हो जाता है । इसी को कबीर ने - कछू पूरबला लेख - कहा है । पूर्व जन्म की साधना आगे बढ़ी हुई रहती है तो इस जन्म में सिद्धि शीघ्र मिल जाती है । ये संस्कार मनुष्य में ही नहीं, पशुपक्षी में भी रहते हैं । टोलियाजी ने अपनी इस कृति में आत्मराम श्वान की सुन्दर चर्चा की है । जटायु, जाम्बबान, हनुमान और काक भुशुण्डि भी तो ऐसे ही साधक थे । उदयपुर का गजराज भी इन्हीं संस्कारों का धनी था । मत्स्य, कच्छप, वराह और शेषनाग के शरीर में भी तो अनंत संस्कारवान् नारायण बैठ गये थे । वे नारायण कहां नहीं हैं । प्रहलाद के लिये तो खम्भे से प्रकट हो गये । धर्मराज युधिष्ठर के साथ भी श्वान स्वर्ग तक गया था । श्वान के समान स्वामिभक्ति का आदर्श और कहां मिलेगा ? इसीलिये कबीर ने कहा - "कबीर कूता राम का मोतिया मेरा नाउँ । गले राम की जेवरी, जित खींचे तित जाउँ ।” कबीर राम का कुत्ता है । मोती मेरा नाम है। मेरे गले में राम की,
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